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पहला सर्ग।

यहाँ आकर उपस्थित हो गई है । विद्या की प्राप्ति के लिए जैसे उसका निरन्तर अभ्यास करना पड़ता है वैसे ही फलसिद्धि होने तक तुझे इसकी सेवा करनी चाहिए । वर-प्रदान से जब तक यह तेरा मनोरथ सफल न करे तब तक तू, वन के कन्द-मूल-फल आदि पर अपना निर्वाह करके,सेवक के समान इसके पीछे पीछे घूमा कर । यह चलने लगे तो तू भी चल; खड़ो रहे तो तू भी खड़ा रह; बैठ जाय तभी तू भी बैठ; पानी पीने लगे तभी तू भी पानी पी । इसी तरह तू इसका अनुसरण कर । इसकी सेवा में अन्तर न पड़ने पावे । प्रति दिन प्रातःकाल उठकर तेरी पत्नी भी शुद्धान्तःकरण से भक्तिभाव-पूर्वक इसकी पूजा करे। फिर तपोवन की सीमा तक इसके पीछे पीछे जाय । और, सायङ्काल जब यह आश्रम को लौटे तब कुछ दूर आगे जाकर इसे ले आवे । जब तक यह तुझ पर प्रसन्न न हो तब तक तू बराबर इसी तरह इसकी सेवा-शुश्रूषा करता रह । परमेश्वर करे तेरे इस काम में कोई विन्न न उपस्थित हो और जैसे तेरे पिता ने तुझको अपने सदृश पुत्र पाया है वैसे ही तू भी अपने सदृश पुत्र पावे ।"

यह सुन कर देश और काल के जानने वाले वशिष्ठ के शिष्य उस राजा ने पत्नी-सहित नम्र होकर मुनीश्वर को आदरपूर्वक नमस्कार किया और कहा-"बहुत अच्छा । आपकी आज्ञा को मैं सिर पर धारण करता हूँ। आपने जो कहा मैं वही करूँगा।"

इसके अनन्तर,रात होने पर सत्य, और मधुर-भाषण करने वाले ब्रह्मा के पुत्र परम विद्वान् वशिष्ठ ने श्रीमान् राजा दिलीप को जाकर आराम से सोने की आज्ञा दी।

वशिष्ठ मुनि महा तपस्वी थे। उन्हें सब तरह की तपःसिद्धि प्राप्त थी। यदि वे चाहते तो अपनी तपःसिद्धि के प्रभाव से राजा के लिए सब तरह की राजोचित सामग्री प्रस्तुत कर देते । परन्तु वे व्रतादि प्रयोगों के उत्तम ज्ञाता थे। अतएव उन्होंने ऐसा नहीं किया। व्रत-नियम पालन करने के लिए उन्होंने वनवासियों के योग्य वन में ही उत्पन्न हुई कुश-समिध आदि चीज़ों के दिये जाने का प्रबन्ध किया । और चीज़ों की उन्होंने आवश्यकता ही नहीं समझी । व्रत-निरत राजा को भी वनवासी ऋषियों ही की तरह