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पहला सर्ग।

सके,कृपा कर के आप बचाइए; क्योंकि इक्ष्वाकु के कुल में उत्पन्न हुए पुरुषों के लिए दुर्लभ पदार्थ भी प्राप्त करा देना आप ही के अधीन है।"

राजा की इस प्रार्थना को सुन कर वशिष्ठ ऋषि अपनी आँखें बन्द कर के कुछ देर के लिए ध्यान-मग्न हो गये । उस समय वे ऐसे शोभायमान हुए जैसे कि मत्स्यों का चलना फिरना बन्द हो जाने पर,कुछ देर के लिए शान्त हुआ,सरोवर शोभायमान होता है। इस प्रकार ध्यान-मन्न होते ही उस विशुद्धात्मा महामुनि को राजा के सन्तति न होने का कारण मालूम हो गया । तब उसने राजा से इस प्रकार कहा:--

"हे राजा! तुझे याद होगा,इन्द्र की सहायता करने के लिए एक बार तू स्वर्ग-लोक को गया था । वहाँ से जिस समय तू पृथ्वी की तरफ़ लौट रहा था उस समय,राह में,कामधेनु बैठी हुई थी। उसी समय तेरी रानी ने ऋतु-स्नान किया था। अतएव धर्मलोप के डर से उसी का स्मरण करते हुए बड़ी शीघ्रता से तु अपना रथ दौड़ाता हुआ अपने नगर को जा रहा था । इसी जल्दी के कारण उस पूजनीया सुरभी की प्रदक्षिणा और सत्कार आदि करना तू भूल गया। इस कारण वह तुझ पर बहुत अप्रसन्न हुई। उसने कहा-'तूने मुझे नमस्कार भी न किया। मेरा इतना अपमान ! जा, मैं तुझे शाप देती हूँ कि मेरी सन्तति की सेवा किये बिना तुझे सन्तति की प्राप्ति ही न होगी।' इस शाप को न तू ने ही सुना और न तेरे सारथि ही ने। कारण यह हुआ कि उस समय आकाश-गङ्गा के प्रवाह में अपने अपने बन्धनों से खुल कर आये हुए दिग्गज क्रीड़ा कर रहे थे । जल-विहार करते समय वे बड़ा ही गम्भीर नाद करते थे। इसी से कामधेनु का शाप तुझे और तेरे सारथि को न सुन पड़ा । इसमें कोई सन्देह नहीं कि कामधेनु का सत्कार तुझे करना चाहिए था। परन्तु तूने ऐसा नहीं किया; इसीसे पुत्र-प्राप्ति-रूप तेरा मनोरथ अब तक सफल नहीं हुआ। पूजनीयों की पूजा न करने से कल्याण का मार्ग अवश्य ही अवरुद्ध हो जाता है।

"अब,यदि उस कामधेनु की आराधना कर के तू उसे प्रसन्न करना चाहे तो यह बात भी नहीं हो सकती। कारण यह है कि इस समय पाताल में वरुण-देव एक बहुत बड़ा यज्ञ कर रहे हैं। उनके लिए अनेक