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रघुवंश।


था। धूप चली जाने पर वह सब धान्य वहीं आँगन में एक जगह एकत्र कर दिया जाता था। उसी धान्य के ढेर के पास बैठे हुए हिरन आनन्द से पागुर किया करते थे। आश्रम के यज्ञ-कुण्डों से जो धुआँ निकलता था वह सर्वत्र फैल कर दूर दूर तक मानों सबको यह सूचना देता था कि यहाँ यज्ञ हो रहा है। जिन अनेक प्रकार के सुगन्धित पदार्थों की आहुतियाँ दी जाती थीं उनकी सुगंध चारों ओर धुयें के साथ फैल जाती थी। उस आश्रम को आनेवाले अतिथि उस धुयें के स्पर्श से पवित्र हो जाते थे।

आश्रम में पहुँच जाने पर राजा ने सारथि को आज्ञा दी कि रथ से घोड़ों को खोल कर उन्हें आराम करने दो। तदनन्तर रानी सुदक्षिणा को उसने रथ से उतारा। फिर वह आप भी रथ से उतर पड़ा। प्रजा का पुत्रवत् पालन करने के कारण परम-पूजनीय और नीति-शास्त्र में परम निपुण उस रानी सहित राजा दिलीप के पहुँचते ही आश्रम के बड़े बड़े सभ्यों और जितेन्द्रिय तपस्वियों ने उसका सप्रेम आदर-सत्कार किया।

सायङ्कालीन सन्ध्यावन्दन, अग्निहोत्र, हवन आदि धार्मिक कृत्य कर चुकने पर उस राजा ने, पीछे बैठी हुई अपनी पत्नी अरुन्धती के सहित उस तपोनिधि ऋषि को आसन पर बैठे हुए देखा। उस समय ऋषि और ऋषि-पत्नी दोनों ऐसे शोभायमान हो रहे थे जैसे स्वाहा नामक अपनी भार्या के सहित अग्निदेव शोभायमान होते हैं। दर्शन होते ही मगध नरेश की कन्या रानी सुदक्षिणा और दिलीप ने महर्षि वशिष्ठ और उनकी पत्नी अरुन्धती के पैर छुए। इस पर उन दोनों पति-पत्नी ने राजा और रानी को आशीर्वाद देकर उनका सत्कार किया। रथ पर सवार होकर इतनी दूर आने से राजा को जो परिश्रम हुआ था वह महर्षि वशिष्ठ के आतिथ्य- सत्कार से जाता रहा। राज्य-रूपी आश्रम के महामुनि उसे राजा को शान्त-श्रम देख कर ऋषि ने उसके राज्य के सम्बन्ध में कुशल-समाचार पूँछे। ऋषि का प्रश्न सुन कर शत्रुओं के नगरों के जीतने वाले और बातचीत करने में परम कुशल उस राजा दिलीप ने अथर्व-वेद के वेत्ता अपने कुलगुरु वशिष्ठ के सामने नम्र होकर नीचे लिखे अनुसार सार्थक भाषण प्रारम्भ किया:-

"हे गुरुवर! आप मेरी दैवी और मानुषी आदि सभी आपत्तियों के