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पहला सर्ग।


संस्कारों की तरह जब उसका अभीष्ट कार्य सफल हो जाता था तब कहीं लोगों को इसका पता चलता था कि इस राजा के अमुक कार्य का कभी प्रारम्भ भी हुआ था।

धर्म, अर्थ और काम-इन तीनों का नाम त्रिवर्ग है। इनका साधन एक मात्र शरीर ही है। शरीर के बिना इनकी सिद्धि नहीं हो सकती। यही सोच कर वह निर्भयतापूर्वक अपने शरीर की रक्षा करता था। बिना किसी प्रकार के क्लेश या दुःख का अनुभव किये ही वह धर्माचरण में रत रहता था। बिना ज़रा भी लोभ की वासना के वह धनसञ्चय करता था। और, बिना कुछ भी आसक्ति के वह सुखोपभोग करता था।

दूसरे की गुप्त बातें जान कर भी वह चुप रहता था, कभी मर्म भाषण न करता था। यद्यपि हर प्रकार का दण्ड देने की उसमें शक्ति थी, तथापि क्षमा करना उसे अधिक पसन्द था-परकृत अपराधों को वह चुपचाप सहन कर लेता था। यद्यपि वह बड़ा दानी था, तथापि दान देकर कभी उस बात को अपने मुँह से न निकालता था। ये ज्ञान, मान आदि गुण यद्यपि परस्पर विरोधी हैं तथापि उस राजा में ये सारे के सारे सगे भाई की तरह वास करते थे।

अपनी प्रजा को वह सन्मार्ग में लगाता था, भय से उनकी सदा रक्षा करता था; अन्न-वस्त्र आदि देकर उनका पालन पोषण करता था। अतएव प्रजा का वही सच्चा पिता था। प्रजाजनों के पिता केवल जन्म देने वाले थे। जन्म देने ही के कारण वे पिता कहे जा सकते थे और किसी कारण से नहीं।

सब लोगों को शान्तिपूर्वक रखने ही के लिए वह अपराधियों को दंड देता था, किसी लोभ के वश होकर नहीं। एक मात्र सन्तान के लिए ही वह विवाह की योजना करता था, विषयोपभोग की वासना से नहीं। अतएव उस धर्मज्ञ राजा के अर्थ और काम-ये दोनों पुरुषार्थ भी धर्म ही का अनुसरण करने वाले थे। धर्म ही को लक्ष्य मान कर वह इन दोनों की योजना करता था।

राजा दिलीप ने यज्ञ ही के निमित्त पृथ्वी को, और इन्द्र-देवता ने धान्य ही की उत्पत्ति के निमित्त आकाश को, दुहा। इस प्रकार उन दोनों ने अपनी