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भूमिका।
(१) प्रपेदिरे प्राक्तनजन्मविद्याः
और
(२) भावस्थिराणि जननान्तरसौहृदानि

कह कर इस सिद्धान्त को भी स्वीकार किया है। सांख्यशास्त्रसम्ब- न्धिनी उनकी अभिज्ञता के दर्शक एक श्लोक का अवतरण पृष्ठ १० में पहले ही दिया जा चुका है।

ज्योतिष का ज्ञान ।

इस में तो कुछ भी सन्देह नहीं कि कालिदास ज्योतिष-शास्त्र के पण्डित थे । इस बात के कितने ही प्रमाण उनके ग्रन्थों में पाये जाते हैं। उज्जयिनी बहुत काल तक ज्योतिर्विद्या का केन्द्र थी। जिस समय इस शास्त्र की बड़ी ही ऊर्जितावस्था थी उसी समय, अथवा उसके कुछ काल आगे पीछे,कालिदास का प्रादुर्भाव हुआ। अतएव ज्योतिष से उनका परिचय होना बहुत ही स्वाभाविक थाः-

(१) दृष्टिप्रपातं परिहृत्य तस्य कामः पुरः शुक्रमिव प्रयाणे ।
(२) ग्रहैस्ततः पञ्चभिरुच्चसंस्थाह्म मुहूर्ते किल तस्य देवी।
(३) मैत्रे मुहूर्ते शशलाञ्छनेन योग गतासूत्तर फल्गुनीषु ।
(४) हिमनिमुक्तयोोंगे चित्राचन्द्रमसोरिव ।
(५) तिथौ च जामित्रगुणान्वितायाम् ।

इत्यादि ऐसी कितनी ही उक्तियाँ कालिदास के ग्रन्थों में विद्यमान हैं जो उनकी ज्योतिष-शास्त्रज्ञता के कभी नष्ट न होनेवाले सर्टिफिकेट हैं।

ग्रहण के यथार्थ कारण को भी कालिदास अच्छी तरह जानते थे। उन्होंने रघुवंश में लिखा है:-

छाया हि भूमेः शशिना मलत्वेनारोपिता शुद्धिमतः प्रजाभिः ।

पदार्थविज्ञान से परिचय।

कुमारसम्भव के:-

हरस्तु किं चित्प्रविलुप्तधैर्यश्चन्द्रोदयारम्भ इवाम्बुराशिः ।

इस श्लोक से सूचित होता है कि समुद्र में ज्वार-भाटा आने का प्राकृतिक कारण भी उन्हें अच्छी तरह मालूम था।

ध्रुव-प्रदेश में दीर्घ-काल तक रहनेवाले उषःकाल का भी उन्हें ज्ञान था । उन्होंने लिखा है:-