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रघुवंश ।

विरत न होता। समझाने, बुझाने और धमकाने से कुछ भी लाभ न होता देख अग्निवर्ण की रानियों ने एक और उपाय निकाला। उन्होंने बनावटी प्रसन्नता प्रकट करके भाँति भाँति के उत्सव आरम्भ कर दिये। इस प्रकार, उत्सवों के बहाने, उन्होंने अग्निवर्ण का बाहर जाना बन्द कर दिया। उन्होंने कहा, लावो इस छली के साथ छल करके ही अपना काम निकालें। बात यह थी कि वे अपनी प्रेम-गर्विता संपनियों से बेहद रुष्ट थीं । इसी से उन्होंने इस प्रकार की धोखेबाज़ी से भी काम निकालना अनुचित न समझा।

रात भर तो वह न मालूम कहाँ रहता; प्रातःकाल घर आता। उस समय उसका रूप-रङ्ग देखते ही उसकी करतूत उसकी रानियों की समझ में आ जाती। तब अग्निवर्ण हाथ जोड़ कर उन्हें मनाने की चेष्टा करता । परन्तु उसकी इस चेष्टा से उनका दुःख कम होने के बदले दूना हो जाता। थै, कभी रात को सोते समय, स्वप्न में, अग्निवर्ण के मुख से उसकी किसी प्रेयसी का नाम निकल जाता तब तो उसकी रानियों के क्रोध का ठिकाना ही न रहता। वे उससे बोलती तो एक शब्द भी नहीं; पर रो रोकर और अपने हाथ के कङ्कण इत्यादि तोड़ तोड़ कर उसका बेतरह तिरस्कार करतीं। यह सब होने पर भी वह अपनी कुचाल न छोड़ता। वह गुप्त लता-कुलों में अपने लिए फूलों की सेजें बिछवाता और वहीं मनमाने भोग-विलास किया करता।

कभी कभी भूल से वह किसी रानी को अपनी किसी प्रेयसी के नाम से पुकार देता। इस पर उस रानी को मर्मभेदी वेदना होती। वह, उस समय, राजा को बड़े ही हृदयदाही व्यङ्गय वचन सुनाती । वह कहती:"जिसका नाम मुझे मिला है यदि उसी का जैसा सौभाग्य भी मुझे मिलता तो क्या ही अच्छा होता !"

प्रातःकाल अग्निवर्ण की शय्या का दृश्य देखते ही बन आता। कहीं उस पर कुमकुम पड़ा हुआ देख पड़ता, कहीं टूटी हुई माला पड़ी देख पड़ती, कहीं मेखला के दाने पड़े देख पड़ते, कहाँ महावर के चिह्न बने हुए दिखाई देते।

कभी कभी मौज में आकर, वह किसी प्रेयसी के पैरों में आप ही