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अठारहवाँ सर्ग।


पुकारते हैं। पृथ्वी के उस ईश्वर ने विश्वेश्वर (महादेव) की आराधना करके विश्वसह नामक पुत्र के रूप में अपनी आत्मा को प्रकट किया। उसका पुत्र सारे विश्व का प्यारा और सारी विश्वम्भरा (पृथ्वी) का पालन करने योग्य हुआ।

परम नीतिज्ञ विश्वसह राजा ने हिरण्यनाभ नाम का पुत्र पाया। हिर- ण्याक्ष के वैरी विष्णु के अंश से उत्पन्न होने के कारण वह अत्यन्त बलवान्हु आ। पवन की सहायता पाकर हिरण्यरेता (अग्नि) जैसे पेड़ों को। असह्य हो जाता है वैसे ही इस बलवान पुत्र की सहायता पाकर विश्वसह अपने वैरियों को असह्य हो गया। पुत्र की बदौलत विश्वसह पितरों के ऋण से छूट गया। अतएव उसने अपने को बड़ा ही भाग्यशाली समझा। उसने सोचा कि जितने सुख इस जन्म में मैंने भोगे हैं वे सब अनन्त और अविनाशी नहीं हैं। इस कारण ऐसा प्रयत्न करना चाहिए जिससे मुझे अनन्त सुखों की प्राप्ति हो। अतएव बूढ़े होने पर उसने गाँठों तक लम्बी भुजाओं वाले अपने पुत्र को तो राजा बना दिया और आप वृक्षों की छाल के कपड़े पहन कर वनवासी हो गया।

हिरण्यनाभ बड़ा नामी राजा हुआ। उत्तर-कोशल के सूर्यवंशी राजाओं का वह भूषण समझा गया। उसने कौशल्य नामक औरस पुत्र पाया, जो दूसरे चन्द्रमा के समान-आँखों को आनन्द देनेवाला हुआ। महा- यशस्वी कौशल्य की कीति कौमुदो का प्रकाश ब्रह्मा की सभा तक पहुँचा। उसके महाब्रह्मज्ञानी ब्रह्मिष्ठ नामक पुत्र हुआ। उसी को अपना राज्य देकर राजा कौशल्य ब्रह्मगति को प्राप्त हो गया-वह मुक्त हो गया।

ब्रह्मिष्ठ अपने वंश में शिरोमणि हुआ। उसने बड़ी ही योग्यता से प्रजा का पालन और पृथ्वी का शासन किया। उसके शासन और प्रजा-पालन में कभी किसी तरह का विघ्न न हुआ। उसके सुशासन के चिह्न पृथ्वी पर सर्वत्र व्याप्त हो गये। ऐसे प्रजापालक राजा को पाकर, आँखों से आनन्द के आँसू बहाती हुई प्रजा ने, चिरकाल तक, सुख और सन्तोष का उपभोग किया।

राजा ब्रह्मिष्ठ के पुत्र नाम का एक नामी पुत्र हुआ। उसने विष्णु के समान सुन्दर रूप पाया। उस कमल-पत्र-समान सुन्दर नेत्रेवाले पुत्र ने