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कालिदास का शास्त्र-ज्ञान।


थे। लोकाचार, राजनीति, साधारण नीति आदि में भी उनकी असामान्य गति थी। प्रकृति-परिज्ञान के तो वे अद्भुत पण्डित थे। प्रकृति की सारी करामातें-उसके सारे कार्य-उनकी प्रतिभा के मुकुर में प्रतिबिम्बित होकर उन्हें इस तरह देख पड़ते थे जिस तरह कि हथेली पर रक्खा हुआ आमला देख पड़ता है। वे उन्हें हस्तामलक हो रहे थे। उनकी इस शास्त्रज्ञता के प्रमाण उनकी उक्तियों और उपमाओं में जगह जगह पर रत्नवत् चमक रहे हैं।

दर्शन-शास्त्रों का ज्ञान।

ग्रंथारम्भ में कही गई कालिदास की उक्तिओं से यद्यपि यह सूचित होता है कि वे शैव थे, किंवा शिवोपासना की और उनकी प्रवृत्ति अधिक थी, तथापि वे पूरे वेदान्ती थे। वेदान्त के तत्वों को वे अच्छी तरह जानते थे। ईश्वर और जीव, माया और ब्रह्म, आत्मा और परमात्मा के सम्बन्ध को वे वैसा ही मानते थे जैसा कि शङ्कराचार्य ने पीछे से माना है। ईश्वर की सर्व-व्यापकता भी उन्हें मान्य थी। अभिज्ञान-शाकुन्तल का पहला ही श्लोक-"या सृष्टिः स्रष्टुराद्या"-इस बात का साक्षी है। इसमें उन्होंने यह स्पष्टतापूर्वक स्वीकार किया है कि ईश्वर की सत्ता सर्वत्र विद्यमान है। परमात्मा की अनन्तता का प्रमाण रघुवंश के इस श्लोक में है:-


तां तामवस्थां प्रतिपद्यमानं स्थितं दश व्याप्य दिशो महिम्ना।

विष्णोरवास्यानवधारणीयमीक्तया रूपमियत्तया वा॥

पुनर्जन्म अथवा आत्मा की अविनश्वरता का प्रमाण रघुवंश के निम्नो- द्धृत पद्यार्ध में पाया जाता है:-

मरण प्रकृतिः शरीरिणां विकृतिर्जीवनमुच्यते बुधैः।

कालिदास की योग-शास्त्र-सम्बन्धिनी विज्ञता उनकी इस उक्ति से स्पष्ट है:-

तमसः परमापदव्यय पुरुष योगसमाधिना रघुः।

माया का आवरण हट जाने और सञ्चित कर्म क्षीणता को प्राप्त होने से आत्मा का योग परमात्मा से हो जाता है। यह वेदान्त-तत्त्व है। इसे कालिदास जानते थे, यह बात भी उनकी पूर्वोक्त उक्ति से सिद्ध है। वेदान्तियों का सिद्धांत है कि कम्मों या संस्कारों का बीज नष्ट नहीं होता। कालिदास ने:-