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रघुवंश।


साधर्म्य के कारण, सब लोग अतिथि को पाँचबाँ दिकपाल, छठा महाभूत और आठवाँ कुल-पर्वत कहने लगे।

राजा अतिथि के प्रताप और प्रभाव का सर्वत्र सिक्का बैठ गया। देवता लोग जैसे देवेन्द्र की आज्ञा को सिर झुका कर मानते हैं वैसे ही शासनपत्रों में दी गई राजा अतिथि की आज्ञा को, देश-देशान्तरों तक के भूपाल, अपने छत्रहीन सिर झुका झुका कर, मानने लगे। अश्वमेध-यज्ञ में उसने ऋत्विजों को इतना धन देकर उनका सम्मान किया कि वह भी कुवेर कहा जाने लगा---उसके और कुवेर के काम में कुछ भी अन्तर न रह गया।

राजा अतिथि के राजत्व-काल में इन्द्र ने यथासमय जल बरसाया। रोगों की वृद्धि रोक कर यम ने अकालमृत्यु को दूर कर दिया। जहाज़ों और नावों पर आने जाने वालों के सुभीते के लिए वरुण ने जलमागों को हर तरह सुखकर और सुरक्षित बना दिया। अतिथि के पूर्वजों के लिहाज़ से कुवेर ने भी उसके ख़ज़ाने को खूब भर दिया। अतएव यह कहना चाहिए कि दिकपालों ने-दण्ड के डर से अतिथि के वशीभूत हुए लोगों के सदृश ही-उसके साथ व्यवहार किया। अर्थात् वे भी उसके अधीन से होकर उसके काम करने लगे।