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भूमिका।

(३) समीरणोत्थैव तरङ्गलेखा पद्मान्तर मानसराजहंसीम् ।

(४) बिभर्षि चाकारमनिवृतानां मृणालिनी हैममिवोपरागम् ।

(५) पर्याप्तपुष्पस्तबकावनम्रा सञ्चारिणी पल्लविनी लतेव।

(६) नेत्रैः पपुस्तृप्तिमनाप्नुवभिनवोदय नाथमिवैौषधीनाम् ।

कैसी सुन्दर उपमाये हैं; कैसी श्रुतिसुखद और प्रसाद-गुणपूर्ण पदावली है। किसकी प्रशंसा की जाय ? उपमा की "कोमल-कान्त-पदावली" की अथवा हृदयहारिणी उक्ति की ?

कालिदास की कुछ उपमायें बहुत छोटी हैं; अनुष्टुप छन्द के एक ही चरण में वे कही गई हैं। ऐसी उपमानों में भी वही खूबी है जो लम्बे लम्बे श्लोकों में गुम्फित उपमाओं में है। ये छोटी छोटी उपमायें नीति, सदाचार और लोक-रीति-सम्बन्धिनी सत्यता से भरी हुई हैं। इसी से पण्डितों के कण्ठ का भूषण हो रही हैं। साधारण बात-चीत और लेख आदि में इनका बेहद व्यवहार होता है:-

(१) श्रादानं हि विसर्गाय सतां वारिमुचामिव।

(२) त्याज्यो दुष्टः प्रियोऽप्यासीदमुलीवोरगक्षता।

(३) विषवृक्षोऽपि संवध्य स्वयं छेत्तु मसाम्प्रतम्।

(४) हंसो हि क्षीरमादत्त तन्मिश्रा वय॑यत्यपः।

(५) उपप्लवाय लोकानां धूमकेतुरिवोत्थितः।

आदि ऐसी ही उपमायें हैं।


कालिदास का शास्त्र-ज्ञान।

कालिदास के काव्य और नाटक इस बात का साक्ष्य दे रहे हैं कि कालिदास केवल महाकवि ही न थे। कोई शास्त्र ऐसा न था जिसमें उनकी गति न हो। वे असामान्य वैयाकरण थे। अलङ्कार-शास्त्र के वे पारगामी थे। संस्कृत-भाषा पर उनकी निःसीम सत्ता थी। जो बात वे कहना चाहते थे उसे कविता द्वारा व्यक्त करने के लिए सबसे अधिक सुन्दर और भाव-व्यञ्जक शब्दों के समूह के समूह उनकी जिह्वा पर नृत्य सा करने लगते थे। कालिदास की कविता में शायद ही कुछ शब्द ऐसे होंगे जो असुन्दर और अनुपयोगी अथवा भावोद्बोधन में असमर्थ समझे जा सकें। वेदान्त के वे ज्ञाता थे; आयुर्वेद के वे ज्ञाता थे; सांख्य, न्याय और योग के वे ज्ञाता थे; ज्योतिष के वे ज्ञाता थे; पदार्थ-विज्ञान के वे ज्ञाता