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सत्रहवाँ सर्ग।

राजा अतिथि का वृत्तान्त ।

रात के चौथे पहर से बुद्धि को जैसे विशद-भाव की प्राप्ति होती है वैसेही कुश से कुमुद्रती को अतिथि नामक पुत्र की प्राप्ति हुई । प्रतापी पिता का पुत्र होने से वह भी बड़ा ही तेजस्वी हुआ । उत्तर और दक्षिण, दोनों, मार्गों को सूर्य की तरह, उसने भी अपने पिता और माता, दोनों, के कुलों को पवित्र कर दिया । उसके बहुदर्शी और विद्वान् पिता ने पहले तो उसे क्षत्रियोचित शिक्षा देकर युद्धविद्या और राजनीति में निपुण कर दिया; फिर, राजाओं की कन्याओं के साथ उसका विवाह किया। कुश जैसा शूर वीर, जितेन्द्रिय और कुलीन था पुत्र भी भगवान ने उसे वैसाही शूर वीर, जितेन्द्रिय और कुलीन दिया । अतएव, कुश को ऐसा मालूम होने लगा कि मैं एक नहीं, अनेक हूँ। अर्थात् पुत्र में अपने ही से सब गुण होने के कारण उसे उसकी आत्मा, एक से अधिक हो गई सी, जान पड़ने लगी।

इन्द्र की सहायता करना रघुवंशी राजाओं के कुल की रीति ही थी। अतएव, कुश को भी इन्द्र की सहायता के लिए अमरावती जाना पड़ा। वहाँ उसने दुर्जय नामक दैत्य के साथ महा घोर संग्राम करके उसे मार डाला । परन्तु उस दैत्य के हाथ से उसे भी अपने प्राण खाने पड़े। चाँदनी जैसे कुमुदों को आनन्द देनेवाले चन्द्रमा का अनुगमन करती है वैसेही नागराज कुमुद की बहन कुमुदती भी कुमुदानन्द (पृथ्वी की प्रीति से प्रानन्दित होने वाले ) कुश का अनुगमन कर गई-पति के साथ वह सती हो गई । इस लोक से उन दोनों के प्रस्थान कर जाने पर कुश को तो इन्द्र के प्राधे सिंहासन का भोग प्राप्त हुआ और कुमुद्रती को इन्द्राणी की सखी