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कालिदास की उपमायें।
सन्तानवाहीण्यपि मानुषाणां दुःखानि सबन्धुवियोगजानि।
दृष्टं जने प्रेयसि दुःसहानि स्रोतःसहस्ररिव संप्लवन्डे॥

अर्थात्-प्रेमी जन को देखने से बन्धु वियोग-जन्य दुःख मानो हज़ार गुना अधिक हो जाता है। वह इतना बढ़ जाता है मानो उससे हज़ारों सोते फूट निकलते हैं। इसी बात को-इसी भाव को-देखिए, कालिदास थोड़े ही शब्दों में, पर किस खूबी से, कहते हैं:-

स्वजनस्य हि दुःखमग्रतो विवृतद्वारमियोपजायते।

अर्थात्-स्वजनों के आगे छिपे हुए दुःख को बाहर निकल आने के लिए हृदय का द्वार सा खुल जाता है।

इसी से कहते हैं कि भवभूति के भाव शब्द-समूह के सघन वेष्टन से वेष्टित हैं। कालिदास के भावों का शब्द-वेष्टन इतना बारीक और इतना थोड़ा है कि वे उसके भीतर झलकते हुए देख पड़ते हैं। यही इन दोनों नाट्यकारों की कविता में विशेषता है।

'कालिदास की उपमायें।'

सुन्दर, सर्वाङ्गपूर्ण और निर्दोष उपमानों के लिए कालिदास की जो इतनी ख्याति है वह सर्वथा यथार्थ है। किसी देश और किसी भाषा का अन्य कोई कवि इस विषय में कालिदास की बराबरी नहीं कर सकता। इनकी उपमा अलौकिक हैं। उनमें उपमान और उपमेय का अद्भुत सादृश्य है। जिस भाव, जिस विचार, जिस उक्ति को स्पष्टतर करने के लिए कालिदास ने उपमा का प्रयोग किया है उस उक्ति और उपमा का संयोग ऐसा बन पड़ा है जैसा कि दूध-बूरे का संयोग होता है। उपमा को उक्ति से अलग कर देने से वह अत्यन्त फीकी किंवा नीरस हो जाती है। यह बात केवल उपमाओं ही के लिए नहीं कही जा सकती। उपमाओं के सिवा उत्प्रेक्षा, दृष्टान्त और निदर्शनालङ्कारों का भी प्रायः यही हाल है। अन्य कवियों की उपमाओं में उपमान और उपमेय के लिङ्ग और वचन में कहीं कहीं विभिन्नता पाई जाती है; पर कालिदास की उपमानों में शायद ही कहीं यह दोष हो। देखिए:-

(१) प्रबालशोभा इव पादपानां शृङ्गारचेष्टा विविधा बभूवुः ।

(२) नरेन्द्रमार्गाट इव प्रपेदे विवर्णभाव स स भूमिपालः ।