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रघुवंश ।

अयोध्या के उपवन वहाँ से दूर न थे। उन उपवनों की वायु ने देखा कि कुश थका हुआ है और उसकी सेना भी श्रम से क्लान्त है। अतएव, सरयू की शीतल लहरों को छूकर और फूलों से लदे हुए वृक्षों की शाखाओं को हिला कर वह आगे बढ़ कर कुश से मिलने के लिए दौड़ आई।

पुरवासियों के सखा, शत्रुओं के हृदयों को बाणों से छेदने वाले, अपने कुल में ध्वजा के सदृश उन्नत, महाबली कुश ने, उस समय, फहराती हुई पताकावाली अपनी सेना को अयोध्या के इर्द गिर्द उतार दिया। सेना को, इस प्रकार, आराम से ठहरा कर उसने असंख्य सामग्री इकट्ठी कराई। फिर उसने हज़ारों कारीगर--बढ़ई, लुहार, मेसन, चित्रकार आदि-बुला कर उजड़ी हुई अयोध्या का जीर्णोद्धार करने की उन्हें आज्ञा दी। स्वामी की आज्ञा पाकर उन्होंने अयोध्यापुरी को-जल बरसा कर ग्रीष्म की तपाई हुई भूमि को बादलों की तरह-फिर से नई कर दिया । तदनन्तर, उस रघुवंशी वीर ने सैकड़ों सुन्दर सुन्दर देव-मन्दिरों सेcसुशोभित पुरी में प्रवेश करने के पहले, वास्तुविधि के ज्ञाता विद्वानों को बुलाया। उन्होंने, राजा की आज्ञा से, पहले तो उपवास किया; फिर, पशुओं का बलिदान देकर यथाशास्त्र पुरी की पूजा की।

शास्त्र में निर्दिष्ट नियमों के अनुसार, हवन और पूजन आदि हो चुकने पर, कुश ने अयोध्या के राज-महल में-प्रेयसी के हृदय में प्रेमी के सदृश-प्रवेश किया। अपने मन्त्री, सेनापति, कोशाध्यक्ष आदि बड़े बड़े अधिकारियों को भी, उनकी प्रधानता और पद के अनुसार, बड़े बड़े महल और मकान देकर, उसने उन सब का भी यथोचित सम्मान किया। घुड़सालों में घोड़े बाँध दिये गये । गजसालों में, यथानियम गड़े हुए खम्भों से, हाथी बाँध दिये गये। बाज़ार की दुकानों में बिक्री की चीजें भी यथास्थान रख दी गई। उस समय सजी हुई अयोध्या-सारे अङ्गों में आभूषण धारण किये हुए सुन्दरी स्त्री के समान-मालूम होने लगी। उजड़ने के पहले वह जैसी थी वैसी ही फिर हो गई । उसकी पहली शोभा उसे फिर प्राप्त हो गई। रघुवंशियों की इस मनोरमणीय नगरी में निवास करके, मैथिली-नन्दन कुश ने न अमरावती ही को कुछ समझा और न अलकापुरी ही को। इन दोनों नगरियों का राज्य पाकर उनका स्वामी