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सोलहवाँ सर्ग।

का प्रकाश ही दिखाई देता है और न दिन को कमनीय कान्ताओं की मुख-कान्ति ही का कहीं पता चलता है। ये बातें तो दूर रहीं, अब तो उन झरोखों से धुवाँ भी नहीं निकलता । वे, सारे के सारे, इस समय, मकड़ियों के जालों से ढक रहे हैं।

"सरयू को देख कर तो मुझे और भी दुःख होता है। उसके किनारे किनारे बनी हुई फूस और पत्तों की शालायें सूनी पड़ी हैं । घाटों पर पूजापाठ करने वालों का कहीं नामोनिशान तक नहीं है-पूजा की सामग्री कहीं हूँढ़ने पर भी नहीं दिखाई देती । स्नान के समय शरीर पर लगाने के लिए लाये गये सुगन्धित पदार्थों की अब कहीं रत्ती भर भी सुगन्धि नहीं आती । सरयू की यह दुर्गति देख मेरा कलेजा फटा जाता है।

"अतएव, कारणवश धारण की हुई मानुषी देह को छोड़ कर वैष्णवी मूत्ति का स्वीकार करनेवाले अपने पिता की तरह इस कुशावती नगरी को छोड़ कर आपको मेरा स्वीकार करना चाहिए। क्योंकि मैंही आपके वंश के नरेशों की परम्परा-प्राप्त राजधानी हूँ। मेरा निरादर करना आपको योग्य नहीं।"

कुश ने अयोध्या के प्रणयानुरोध को प्रसन्नतापूर्वक मान लिया और बोला- "बहुत अच्छी बात है; मैं ऐसा ही करूँगा।" इस पर स्त्रीरूपिणी अयोध्या का मुख-कमल खिल उठा और वह प्रसन्नता प्रकट करती हुई अन्तर्धान हो गई।

प्रातःकाल होने पर, कुश ने, रात का वह अद्भुत वृत्तान्त, सभा में, ब्राह्मणों को सुनाया। वे लोग, सुन कर, बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने राजा की बड़ी बड़ाई की । वे बोले :-

"रघुकुल की राजधानी ने प्रत्यक्ष प्रकट होकर आपको अपना स्वामी बनाया । इसलिए आप धन्य हैं।"

राजा कुश ने कुशावती को तो वेदवेत्ता ब्राह्मणों के हवाले कर दिया; और, रनिवास-सहित आप, शुभ मुहूर्त में, अयोध्या के लिए रवाना हो गया। उसकी सेना भी उसके पीछे पीछे चली । अतएव वह मेघ-मण्डली को पीछे लिये हुए पवन के सदृश शोभायमान हुआ। उस समय उसकी वह सेना, उसकी चलती हुई राजधानी के समान, मालूम हुई। राजधानी