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चौदहवाँ सर्ग।

मैं अपना धर्म समझती हूँ। इसीसे मुझे मरने से वञ्चित रहना पड़ता है। अच्छा, कुछ हर्ज नहीं । शिशु-जन्म के बाद, सूर्य की तरफ़ एकटक देखती हुई, मैं ऐसी तपस्या करूँगी जिससे जन्मा- न्तर में भी तुम्हीं मेरे पति हो; और, फिर, तुमसे कभी मेरा वियोग न हो । तुम से मेरो एक प्रार्थना है। वह यह कि मनु ने वर्णाश्रमों का पालन करना ही राजा का सबसे बड़ा धर्म बतलाया है। यह तुम अवश्य ही जानते होगे । अतएव, यद्यपि, तुमने मुझे अपने घर से निकाल दिया है, तथापि, फिर भी, मैं तुम्हारी दया का पात्र हूँ। इस दशा को प्राप्त होने पर मुझे तुम पत्नी समझ कर नहीं, किन्तु एक साधारण तपस्विनी समझ कर ही मुझ पर कृपा करना। प्रजा की देख भाल रखना और उसकी रक्षा करना राजा का कर्तव्य है ही । अतएव, तुम्हारे राज्य में रहने- वाली मुझ तपस्विनी को भी अपनी प्रजा समझ कर ही मुझ पर कृपादृष्टि रखना । पत्नी की हैसियत से न सही, प्रजा की हैसियत से ही मुझ पर अपना स्वामित्व बना रहने देना । मुझसे बिलकुल ही नाता न तोड़ देना।"

लक्ष्मण ने कहा:-“देवी ! मैं आपकी आज्ञा का पालन अवश्य करूँगा। माताओं और बड़े भाई से आपका सन्देश में यथावत् कह दूंगा।"

यह कह कर लक्ष्मणजी बिदा हो गये । जब तक वे आँखों की ओट नहीं हुए तब तक सीताजी उन्हें टकटकी लगाये बराबर देखती रहीं। दृष्टि के बाहर लक्ष्मण के निकल जाने पर सीताजी दुःखा- तिरेक से व्याकुल हो उठी और कण्ठ खोल कर, डरी हुई कुररी की तरह, चिल्ला चिल्ला कर रोने लगा । उनका रोना और विल- खना सुन कर वन में भी सर्वत्र रोना-धोना शुरू हो गया। पशु और पक्षी तक सीताजी के दुःख से दुःखी होकर विकल हो गये । मोरों ने नाच छोड़ दिया; पेड़ों ने डालियों से फूल फेंक दिय; हरिणियों ने मुँह में लिये हुए भी कुश के ग्रास उगल दिये । चारों ओर हा-हाकार मच गया।

व्याध के बाण से छिदे हुए क्रौञ्च नाम के पक्षी को देख कर जिनके हृदय का शोक, श्लोक के रूप में, बाहर निकल आया था वे अर्थात् आदिकवि वाल्मीकिजी-इस समय, कुश और ईंधन लेने के लिए, वन में विचर रहे थे । अकस्मात उन्हें रोने की आवाज़ सुनाई दी । अतएव, उसका पता