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रघुवंश

थी। जानकी में यद्यपि शीघ्र ही फलोत्पत्ति होने वाली है-यद्यपि उनका प्रसूति-काल समीप आ गया है-तथापि मैं इस बात की भी कुछ परवा न करूँगा। मैं जानता हूँ कि जानकी सर्वथा निर्दोष है। अतएव, पुरवासी उसके विषय में जो सन्देह करते हैं वह सच नहीं। परन्तु मेरे मत में लोकापवाद बहुत प्रबल वस्तु है; उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। देखो न, चन्द्रमा में कलङ्क का नाम नहीं । वह सर्वथा शुद्ध और निर्मल है। परन्तु उस पर पृथ्वी की जो छाया पड़ती है उसी को लोगों ने कलङ्कमान रक्खा है। तुम शायद यह कहो कि जानकी को जो घर से निकालना ही था तो रावण पर चढ़ाई करके उसे मारने का परिश्रम व्यर्थ ही क्यों मैंने उठाया। परन्तु, रावण को मारने में मुझे जो प्रयास पड़ा उसे मैं व्यर्थ नहीं समझता! उससे वैर का बदला लेना मेरा कर्तव्य था । और, इस तरह का बदला किसी लाभ की आशा से थोड़े ही लिया जाता है। पैर से दबा देने वाले को साँप, क्रोध में आकर, जो काट खाता है वह क्या उसका लोहू पीने की आकांक्षा से थोड़े ही काटता है। साँप कभी रुधिर नहीं पीता । वह तो केवल बदला लेने ही के लिए काटता है। अतएव, तिर्यक-योनि में उत्पन्न साँप तक जब अपने वैरी से वैर का बदला लेता है तब मैं क्यों न लूं ? इसमें सन्देह नहीं कि मेरा निश्चय सुन कर तुमको जानकी पर दया आवेगी--तुम्हारा हृदय करुणा से द्रवीभूत हो उठेगा। परन्तु, यदि तुम चाहते हो कि इस कलङ्करूपी पैने बाण से छिदे हुए अपने प्राण मैं कुछ दिन तक और धारण किये रहूँ तो तुम्हें जानकी का परित्याग करने से मुझे न रोकना चाहिए।"

रामचन्द्र को जानकीजी के साथ ऐसा क्रूर और कठोर व्यवहार करने का ठान ठाने देख, उनके तीनों भाई-लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न-सहसा सहम गये। उनमें से किसी के भी मुँह से 'हाँ' या 'नहीं' न निकला । न उन्होंने वैसा व्यवहार करने से रामचन्द्र को मना ही किया और न उनकी इच्छा के अनुकूल सलाह ही दी । सन्नाटे में आकर सब चुपचाप बैठे रह गये ।

यह दशा देख कर सदा सत्यवादी और तीनों लोकों में विख्यात-कीर्ति रामचन्द्र ने अपने परम आज्ञाकारी भाई लक्ष्मण की तरफ़ देखा और उन्हें अलग एकान्त में ले गये । वहाँ उनसे बे बोले:-