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चौदहवाँ सर्ग।

उसी समय कर डालते । समय को वे कभी व्यर्थ न खेाते। राज्य के काम काज करके जो समय बचता उसे वे सीता के साथ, एकान्त में बैठ कर, व्यतीत करते । सीता के रूप-लावण्य आदि की प्रशंसा नहीं हो सकती । रामचन्द्रजी के समागम का सुख लूटने के लिए, सीता का सुन्दर रूप धारण करके, मानों स्वयं लक्ष्मी ही उनके पास आ गई थी। रामचन्द्रजी के महल उत्तमोत्तम चित्रों से सजे हुए थे । दण्डकारण्य के प्राकृतिक दृश्यों और मुख्य मुख्य स्थानों के भी चित्र वहाँ थे । उन चित्रों को देख कर सीता के साथ बैठे हुए रामचन्द्र को दण्डक-वन की दुःखदायक बातें भी याद आ जाती थी। परन्तु उनसे उन्हें दुःख के बदले सुख ही होता था।

प्रजा के काम से छुट्टी पाने पर, रामचन्द्रजी, सीता के साथ, इच्छापूर्वक, इन्द्रियों के विषय भोग करने लगे। इस प्रकार कुछ दिन बीत जाने पर सीता के मुख पर शर-नामक घास के रङ्ग का पीलापन दिखाई दिया। उनके नेत्र पहले से भी अधिक पानीदार, अतएव और भी सुन्दर, हो गये। सीता ने इन चिह्नों से, बिना मुँह से कहे ही, अपने गर्भवती होने की सूचना रामचन्द्र को कर दी । रामचन्द्र को सीता का हाल मालूम हो गया । अतएव उन्हें बड़ी खुशी हुई । वह रूप, उस समय, उनको बहुत हो अच्छा मालूम हुआ। धीरे धीरे सीता का शरीर बहुत कृश हो गया । गर्भधारण के चिह्न और भी स्पष्ट दिखाई देने लगे। अतएव उन्हें रामचन्द्रजी के सामने होने अथवा उनके पास बैठने में लज्जा मालूम होने लगी। परन्तु उनकी सलज्जता और गर्भ-स्थितिसूचक उनका शरीर देख कर रामचन्द्र को प्रसन्नता होती थी।

एक दिन सीताजी को अपने पास बिठा कर रमणशील रामचन्द्रजी ने प्रेमपूर्वक उनसे पूछा :-

"प्रिये वैदेहि ! तेरा मन, इस समय, किसी वस्तु-विशेष की इच्छा तो नहीं रखता? तुझे अपने मन का अभिलाष, सङ्कोच छोड़ कर, मुझ पर प्रकट करना चाहिए।"

इस पर सीताजी ने कहा :-

"भागीरथी के तीरवर्ती तपोवनों का फिर एक बार मैं दर्शन करना चाहती हूँ। मेरा जी चाहता है कि मैं फिर कुछ दिन वहाँ जाकर रहूँ।