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चौदहवाँ सर्ग।

नहीं। उनकी पूजा की सामग्रो और चित्रमात्र वहाँ उन्हें देख पड़ा। घर के भीतर घुसते ही रामचन्द्र की आँखों से आँसू टपक पड़े। सामने कैकेयी को देख कर उन्होंने बड़ेही विनीत-भाव से कहा:-"माता! सत्य पर स्थिर रहने का फल स्वर्ग की प्राप्ति है। ऐसे कल्याणकारी सत्य से जो पिता नहीं डिगे, यह तुम्हारे ही पुण्य का प्रताप है। बार बार सोचने पर भी मुझे, तुम्हारे पुण्य के सिवा इसका और कोई कारण नहीं देख पड़ता। तुम्हारी ही कृपा से उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति हुई है।" रामचन्द्रजी के मुँह से यह सुन कर भरत की माता का सारा सङ्कोच दूर हो गया। अब तक कैकेयी अपनी करतूत पर लज्जित थी। पर रामचन्द्रजी के उदार वचन सुन कर उसकी सारी लज्जा जाती रही।

रामचन्द्र ने सुग्रीव और विभीषण आदि की सेवा-शुश्रूषा में ज़रा भी कसर न पड़ने दी। उन्होंने नाना प्रकार की कृत्रिम वस्तुओं से उनका खूबही सत्कार किया। उनके मन में भी जिस वस्तु की इच्छा उत्पन्न हुई वह तुरन्तही उन्हें प्राप्त हो गई । माँगने की उन्हें ज़रूरतही न पड़ी। उनके मन तक की बात ताड़ कर, रामचन्द्र के सेवकों ने, तत्कालही, उसकी पृत्ति कर दी । मुँह से किसी को कुछ कहने की उन्होंने नौबतही न आने दी । रामचन्द्रजी का ऐसा अच्छा प्रबन्ध और उनके नौकरों की इतनी दक्षता देख कर विभीषण आदि को बड़ा ही आश्चर्य हुआ।

रामचन्द्रजी से मिलने और उनका अभिनन्दन करने के लिए अगस्त्य आदि कितने ही दिव्य ऋषि और मुनि भी अयोध्या आये। रामचन्द्र ने उन सबका अच्छा आदर सत्कार किया। उन्होंने रामचन्द्र के हाथ से मारे गये उनके शत्रु रावण का वृत्तान्त, जन्म से प्रारम्भ करके मृत्यु-पर्यन्त, रामचन्द्र को सुनाया। इस वृत्तान्त से रामचन्द्र के पराक्रम का और भी अधिक गौरव सूचित हुआ। रामचन्द्र की स्तुति और प्रशंसा करके वे लोग अपने अपने स्थान को लौट गये।

राक्षसों और बन्दरों के स्वामियों को अयोध्या आये पन्द्रह दिन हो गये। परन्तु उन्हें रामचन्द्र ने इतने सुख से रक्खा कि उन्हें मालूम ही न हुआ कि इतने दिन कैसे बीत गये। उनका एक एक दिन एक एक घंटे की तरह कट गया। उनको सब तरह सन्तुष्ट करके रामचन्द्र ने उन्हें घर