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तेरहवाँ सर्ग।


चलने वाले पुष्पक-विमान पर फिर सवार हुए। उस समय वे चमकती हुई बिजलीवाले सायङ्कालीन बादल पर, बुध और बृहस्पति के योग से शोभायमान, चन्द्रमा के समान मालूम हुए।

वहाँ, रथ पर, प्रलय से आदि-वराह की उद्धार की हुई पृथ्वी के समान, अथवा मेघों की घटा से शरत्काल की उद्धार की हुई चन्द्र की चन्द्रिका के समान--दशकण्ठ के कठोर संकट से रामचन्द्र की उद्धार की हुई धैर्य्यवती सीता की वन्दना भरत ने बड़े ही भक्ति-भाव से की। रावण की प्रणयपूर्ण विनती भङ्ग करने के व्रत की रक्षा में दृढ़ता दिखानेवाले जानकीजी के वन्दनीय चरणों पर, भरत ने, बड़े भाई का अनुकरण करने के कारण, बढ़ी हुई जटाओं वाला अपना मस्तक रख दिया। उस समय जानकीजी के पूजनीय पैरों को जोड़े और साधु-शिरोमणि भरत के जटाधारी शीश ने, परस्पर मिल कर, एक दूसरे की पवित्रता को और भी अधिक कर दिया।

आगे आगे अयोध्या की प्रजा चली; उसके पीछे धीरे धीरे रामचन्द्रजी का विमान। आध कोस चलने पर अयोध्या का विस्तृत उद्यान मिला। उसमें शत्रुघ्न ने डेरे लगवा कर उन्हें खूब सजा रक्खा था। विमान से उतर कर वहीं रामचन्द्रजी ठहर गये।


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