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रघुवंश ।

"यह पवित्र तपोवन प्रसिद्ध अग्निहोत्री शरभङ्ग नामक तपस्वी का है। इसमें सभी को शरण मिलती है। कोई यहाँ से विमुख नहीं लौटने पाता। समिधों से चिरकाल तक अग्नि को तृप्त करके भी जब शरभङ्ग मुनि को तृप्ति न हुई तब उसने मन्त्रों से पवित्र हुए अपने शरीर तक को अग्नि में हवन कर दिया। सुपुत्र की तरह पाले गये उसके आश्रम के ये पेड़ ही, अब, उसकी तरफ़ से, अतिथि-सेवा का काम करते हैं। अपनी सुखद छाया से ये आये-गये लोगों की थकावट दूर करते हैं और अपने मीठे तथा बहुत होनेवाले फलों से उनकी भूख मिटाते हैं।

"इस समय हम लोग चित्रकूट के ऊपर से जा रहे हैं। हे ऊँचे नीचे अङ्गोंवाली ! यह पर्वत मुझे गर्विष्ठ बैल के समान मालुम हो रहा है। बैल अपने गुहा-सदृश मुँह से घोर नाद करता है। यह भी अपने गुहारूपी मुँह से झरनों का घन-घोर शब्द करता है। टीलों या मिट्टी के धुस्सों पर टक्कर मारने से बैल के सींगों की नाकों पर कीचड़ लग जाता है। इसके भी शिखररूपी सींगों पर मेघों के ठहरने से काला काला कीचड़ सा लगा हुआ मालूम होता है। यह पर्वत मुझे ऐसा अच्छा लगता है कि मेरी दृष्टि इसकी तरफ़ बलपूर्वक खिंची सी जा रही है।

"यह मन्दाकिनी नाम की नदी है। इसका जल बहुत ही निर्मल है। देख तो यह कैसी धीरे धीरे बह रही है। हम लोगों के विमान से यह दूर है। इससे इसकी धारा बहुत पतली दिखाई देती है। यह पर्वत की तलहटी में बहती जा रही है और ऐसी मालूम हो रही है जैसे पृथ्वी के गले में मोतियों की माला पड़ी हो ।

"पहाड़ के पास तमाल का वह पेड़ कितना सुन्दर है। यवांकुर के समान तेरे कुछ कुछ पीले कपोलों की शोभा बढ़ाने के लिए मैंने इसी तमाल के सुगन्धिपूर्ण कोमल पत्ते तोड़ कर तेरे लिए कर्णफूल बनाये थे।

"यह महर्षि अत्रि का.पावन वन है। यहीं अपने आश्रम में वे तपस्या करते हैं। इसके पेड़ों पर फूलों के तो कहीं चिह्न नहीं; पर फलों से वे सब के सब, चोटी तक, लदे हुए हैं। इससे सिद्ध है कि इस वन के वृक्ष बिना फूले ही फलते हैं। इसके जङ्गली जीवों को कोई छेड़ नहीं सकता। किसी में इतनी शक्ति या साहस ही नहीं जो उन्हें मारे या कष्ट