यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१९७
बारहवाँ सर्ग।


प्रत्यञ्चा उतार डाली। तब इन्द्र का सारथी मातलि उनके सामने उपस्थित हुआ। उसने प्रार्थना की कि आज्ञा हो तो मैं अब अपने स्वामी का रथ वह रथ जिसकी पताका के डण्डे पर रावण का नाम खुदे हुए बाणों के चिह्न बन गये थे-ले जाऊँ। रामचन्द्र ने उसे रथ वापस ले जाने की आज्ञा दे दी। तब वह हज़ार घोड़े जुते हुए उस रथ को लेकर, ऊपर, भाकाश की तरफ रवाना हो गया।

इधर सीता जी ने अग्निपरीक्षा के द्वारा अपनी विशुद्धता प्रमाणित कर दी। अतएव, रामचन्द्र ने अपनी प्रियतमा पत्नो का स्वीकार कर लिया। फिर अपने प्रिय मित्र विभीषण को लङ्का का राज्य देकर, और सीता, लक्ष्मण तथा सुग्रीव को साथ लेकर, अपने भुज-बल से जीते हुए सर्वश्रेष्ठ विमान पर सवार होकर, उन्होंने अयोध्या के लिए प्रस्थान किया।