वह पुल विष्णु के सोने के लिए, रसातल से ऊपर आये हुए, शेषनाग के
समान मालूम होने लगा। उसी पुल के ऊपर से उतर कर रामचन्द्रजी ने
पीले पीले बन्दरों से लङ्का को घेर लिया। लङ्का के चारों तरफ़ सोने का एक
परकोटा तो था ही, बन्दरों का चौतरफा जमाव-घेरा-सोने का दूसरा
परकोटा सा बन गया। वहाँ बन्दरों और राक्षसों का बड़ा हो घोर युद्ध
हुआ। बन्दरों के मुख से निकले हुए रामचन्द्र के और राक्षसों के मुख
से निकले हुए रावण के जय-जयकार से दिशाये गूंज उठी। युद्ध क्या था,
प्रलयकाल का प्रदर्शन था। बन्दरों ने वृक्षों की मार से राक्षसों के परिघ
नामक अस्त्र तोड़ फोड़ डाले पत्थरों के प्रहार से लोहे के मुद्गर चूर चूर
कर दिये; नाखूनों से शस्त्रों की अपेक्षा भी अधिक गहरी चोटें पहुँचाई-
शत्रुओं के शरीर उन्होंने चीर-फाड़ डाले; बड़े बड़े पर्वत-शिखर फेंक कर हाथियों के टुकड़े टुकड़े कर डाले।
तब राक्षसों को माया रचने की सूझी। विद्यु जिह्वा नामक राक्षस ने रामचन्द्रजी का कटा हुआ सिर सीताजी के सामने रख दिया। उसे देखकर सीता जी मूर्छित हो गई। इस पर त्रिजटा नामक राक्षसी ने सीताजी से कहा कि यह केवल माया है। रामचन्द्रजी का बाल भी बाँका नहीं हुआ। आप घबराइए नहीं। यह सुन कर सीताजी को धीरज हुआ। त्रिजटा की बदौलत वे फिर जी सी उठी। यह जान कर कि मेरे पति कुशल से हैं उनका शोक तो दूर हो गया; परन्तु यह सोच कर उन्हें लज्जा अवश्य हुई कि पति की मृत्यु को पहले सच मान कर भी मैं जीती रही। चाहिए था यह कि पति की मृत्युवार्ता सुनते ही मैं भी मर जाती।
मेघनाद ने राम-लक्ष्मण को नागपाश से बाँध दिया। परन्तु इस पाश के कारण उत्पन्न हुई व्यथा उन्हें थोड़ी ही देर तक सहनी पड़ी। गरुड़ के आते ही नागपाश ढीला पड़ गया और राम-लक्ष्मण का उससे छुटकारा हो गया। उस समय वे सोते से जाग से पड़े और नागपाश से बाँधे जाने की पीड़ा उन्हें स्वप्न में हुई सी मालूम होने लगी।
इसके अनन्तर रावण ने शक्ति नामक अस्त्र लक्ष्मण की छाती में मारा। भाई को आहत देख रामचन्द्रजी शोक से व्याकुल हो गये। बिना किसी प्रकार के चोट खाये ही उनका हृदय विदीर्ण हो गया। लक्ष्मण को अचेत