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बारहवाँ सर्ग।

लङ्का से लौट कर सौभाग्यशाली हनुमान ने जानकीजी का चिह्न राम- चन्द्रजी को दिया। यह चिह्न जानकीजी की चूड़ामणि के रूप में था। उसे पाकर रामचन्द्रजी को परमानन्द हुआ। उन्होंने उस मणि को अपने ही मन से आये हुए, जानकीजी के मूर्तिमान हृदय के समान, समझा। उन्होंने कहा, यह जानकी की चूड़ामणि नहीं है; यह तो उनका साक्षात् हृदय है, जो चूड़ामणि के रूप में मेरे पास आकर उपस्थित हुआ है। उसे उन्होंने अपनी छाती से लगा लिया। उसके स्पर्श से वे क्षणमात्र अचेत से हो गये। उन्हें ऐसा आनन्द हुआ जैसे वे जानकीजी का आलिङ्गन ही कर रहे हों। प्रियतमा जानकी के समाचार सुन कर रामचन्द्रजी बेहद उत्कण्ठित हो उठे। उनसे मिलने की कामना उनके हृदय में इतनी बलवती हो गई कि लङ्का के चारों तरफ भरे हुए महासागररूपी परकोटे को उन्होंने साधारण खाई से भी छोटा समझा।

बन्दरों की असंख्य सेना लेकर रामचन्द्रजी ने तत्काल ही लङ्का पर चढ़ाई कर दी। उन्होंने प्रण किया कि शत्रुओं का नाश किये बिना अब मैं न रहूँगा। वे आगे आगे चले, बन्दरों की सेना उनके पीछे पीछे। सेना इतनी अधिक थी कि उसके चलने से पृथ्वी के नहीं, आकाश के भी रास्ते रुक गये। बड़ी कठिनता से उसे चलने की राह मिली। समुद्र के तट पर रामचन्द्र ने अपने और अपनी सेना के डेरे डाल दिये। वहाँ पर रावण का भाई विभीषण आकर उनसे मिला। वह क्या आया, मानों राक्षसों की लक्ष्मी, उसके हृदय में बैठ कर, मारे स्नेह के उसे रामचन्द्र के पास ले आई। वह डरी कि ऐसा न हो जो राक्षसों का समूह ही उन्मूलन हो जाय। इससे उसने विभीषण की बुद्धि फेर दी और उसे रामचन्द्र के पास ले गई। उसने सोचा कि रामचन्द्र की कृपा से यदि यह जीता रहेगा तो इसके आसरे मैं भी बनी रहूँगी।

विभीषण की भक्ति पर प्रसन्न होकर रामचन्द्रजी ने उसे राक्षसों का राज्य देने की प्रतिज्ञा की। यह उन्होंने बहुत ही अच्छा काम किया। नीति का बरताव उचित समय पर करने से अवश्य ही उससे शुभ फल की प्राप्ति होती है।

रामचन्द्रजी ने खारी जल के समुद्र पर बन्दरों से पुल बँधवा दिया।