दुर्गति कर डाली कि बेसिर के सैनिकों, अर्थात् कबन्धों, के सिवा एक भी योद्धा युद्ध के मैदान में समूचा खड़ा न रह गया। सर्वत्र रुण्ड ही रुण्ड दिखाई देने लगे। बाणों की विषम वर्षा करनेवाले रामचन्द्र से लड़ कर राक्षसों की वह सेना, आकाश में उड़ते हुए गीधों के पंखों की छाया में, सदा के लिए सो गई। फिर वह नहीं जागी; सारी की सारी मारी गई। जीती सिर्फ शूर्पणखा बची। रामचन्द्र के शराघात से प्राण छोड़े हुए राक्षसों के मरने की बुरी वार्ता उसी ने जाकर रावण को सुनाई। मानों वह इसीलिए बच रही थी। वह भी यदि न बचती तो रावण को शायद इस युद्ध के फला-फल का हाल ही न मालूम होता।
बहन के नाक-कान काटे और बन्धु-बान्धवों के मारे जाने की खबर पाकर कुवेर के भाई रावण को ऐसा मालूम हुआ जैसे रामचन्द्र ने उसके दसों शीशों पर लात मार दी हो। वह बेहद कुपित हो उठा। हरिणरूपधारी मारीच नामक राक्षस की मदद से, रामचन्द्र को धोखा देकर, वह सीता को हर ले गया। पक्षिराज जटायु ने उसके इस काम में कुछ देर तक विन्न अवश्य डाला; परन्तु वह रावण के पजे से सीता को न छुड़ा सका।
आश्रम में सीता को न पाकर रामचन्द्र और लक्ष्मण उन्हें ढूँढ़ते हुए वन वन घूमने लगे। मार्ग में जटायु से उनकी भेंट हुई। उन्होंने देखा कि जटायु के पंख कटे हुए हैं और उनके प्राया कण्ठ तक आ पहुँचे हैं-उनके निकलने में कुछ ही देरी है। जब उन्हें यह मालूम हुआ कि सीता को छुड़ाने के प्रयत्न में, इस गीध ने, अपने मित्र दशरथ की मित्रता का ऋण, कण्ठगत प्राणों से, चुकाया है तब राम-लक्ष्मण उसके बहुत ही कृतज्ञ हुए। जटायु ने रावणद्वारा सीता के हरे जाने का वृत्तान्त उनसे कह सुनाया। परन्तु रावण के साथ लड़ने में उसने जो प्रबल पराक्रम दिखाया था उसका उलेल्ख करने की उसने कोई आवश्यकता न समझी। क्योंकि, उसका उल्लेख तो उसके शरीर पर लगे हुए घाव और कटे हुए पंख ही कर रहे थे। सीता का हाल कह कर जटायु ने प्राण छोड़ दिये। उसकी मृत्यु से राम-लक्ष्मण को अपने पिता की मृत्यु का शोक नया हो गया। क्योंकि उन्होंने उसे पिता ही के समान समझा था। अतएव, उन्होंने अग्नि-संस्कार से प्रारम्भ करके उसके सारे और्ध्वदैहिक कृत्य पिता के सदृश ही किये।