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बारहवाँ सर्ग।


अब तू मेरे काम की नहीं। मैं अब तुझे अपनी स्त्री नहीं बना सकता।" यह सुनने और लक्ष्मण के द्वारा तिरस्कृत होने पर वह फिर रामचन्द्र के पास आई। उस समय कभी राम और कभी लक्ष्मण के पास जानेवाली उस निशाचरी की दशा, दोनों तटों के आश्रय से बहनेवाली नदी के सदृश, हुई। स्वभाव से तो शूर्पणखा महा कुरूपा थी; पर रामचन्द्र को अपने ऊपर अनुरक्त करने के लिए, माया के प्रभाव से, वह सुन्दरी बनी थी। यह बात सीताजी को मालूम न थी। इस कारण, उसे कभी रामचन्द्र और कभी लक्ष्मण के पास जाते देख, उन्हें हँसी आ गई। उन्हें हँसते देख कर शूर्पणखा आपे से बाहर हो गई। वायु न चलने के कारण निश्चल हुई समुद्र-मर्यादा को चन्द्रोदय जैसे तुब्ध कर देता है वैसे ही सीताजी के हँसने ने शूर्पणखा को क्षुब्ध कर दिया। वह क्रोध से जल उठी; उसका शान्तभाव जाता रहा। वह बोली:-हाँ, तू मुझ पर हँसती है! इस हँसने का फल तुझे बहुत जल्द मिलेगा। बाघिन का तिरस्कार करनेवाली मृगी की जो दशा होती है वही दशा तेरी भी होगी। तेरा यह हँसना मृगी के द्वारा किये गये बाघिन के अपमान के सदृश है। अच्छा, ठहर।"

ऐसी धमकी सुन कर सीताजी डर गई। उन्होंने अपना मुँह पति की गोद में छिपा लिया-भयभीत होकर वे रामचन्द्र की गोद में चली गई। उधर शूर्पणखा ने अपना बनावटी रूप बदल कर, अपने नाम के अनुसार, अर्थात् सूप के समान नखोंवाला, अपना स्वाभाविक भयङ्कर रूप दिखाया। लक्ष्मणजी समझ गये कि यह मायाविनी है। उन्होंने सोचा कि पहले तो इसने कोकिला की तरह कर्ण-मधुर भाषण किया और अब यह शृगाली की तरह घोर नाद कर रही है। अतएव इसकी बोली ही इस बात का प्रमाण है कि यह कपट करने वाली कोई निशाचरी है। फिर क्या था। तुरन्त ही नङ्गी तलवार हाथ में लेकर वे पर्णशाला के भीतर घुस गये और कुरूपता की पुनरुक्ति से उन्होंने उस भयावनी राक्षसी की कुरूपता और भी बढ़ा दी। उसकी नाक और कान काट कर उन्होंने उसकी कुरूपता दूनी कर दी। तब वह आकाश को उड़ गई और वहाँ टेढ़े नखों और बाँस के समान कठोर पोरोंवाली अपनी अंकुश के आकारवाली तर्जनी उँगली नचा नचाकर रामचन्द्र और लक्ष्मण को धमकाने लगी।