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रघुवंश।


न बच सकूँगा। अतएव, उन्होंने रामचन्द्र से बार बार आग्रह किया कि आप अयोध्या को लौट चलिए और राज्य कीजिए। परन्तु रामचन्द्र ने स्वर्गवासी पिता की आज्ञा का उल्लंघन करना स्वीकार न किया। उन्होंने घर लौट जाने और राज्य करने से साफ इनकार कर दिया।

जब भरत ने देखा कि रामचन्द्र को लौटा ले जाना किसी तरह सम्भव नहीं तब उन्होंने उनसे उनकी खड़ाऊँ माँगी। उन्होंने कहा-यदि आप मेरी प्रार्थना नहीं स्वीकार करते तो अपनी खड़ाऊँ ही दे दीजिए। आपकी अनुपस्थिति में मैं उन्हीं को आपके राज्य का देवता बनाऊँगा; आपके सिंहासन पर उन्हीं को स्थापित करके मैं आपके सेवक की तरह आपका राज्यकार्य करता रहूँगा। रामचन्द्र ने भरत की यह बात मानी और खड़ाऊँ दे दी। उन्हें लेकर भरतजी अयोध्या को लौट आये; परन्तु नगर के भीतर न गये। नन्दिग्राम नामक स्थान में, नगर के बाहर ही, वे रहने और अयोध्या के राज्य को बड़े भाई रामचन्द्र की धरोहर समझ कर उसकी रक्षा करने लगे। बड़े भाई के बड़े ही दृढ़ भक्त बने रहना और राज्य के लोभ में न पड़ना भरत के आत्मत्याग का उत्कृष्ट उदाहरण है। ऐसे अद्भुत आत्मत्याग के रूप में उन्होंने मानों अपनी माता कैकेयो के पापक्षालन का प्रायश्चित्त सा कर दिखाया।

उधर रामचन्द्रजी मिथिलेशनन्दिनी सीता और छोटे भाई लक्ष्मण के साथ कन्द, मूल और फल आदि के आहार से जीवन-यात्रा का निर्वाह करते हुए, बड़े ही शान्त भाव से, वन वन घूमने लगे। इक्ष्वाकु कुल के राजा, बूढ़े होने पर, जिस वनवास-व्रत को धारण करते थे उसे रामचन्द्र ने युवावस्था ही में धारण कर लिया।

एक दिन की बात है कि रामचन्द्र घूमते फिरते एक पेड़ के नीचे बैठ गये। उन्हें बैठा देख, उनके प्रभाव से उस पेड़ की छाया थम सी गई। जहाँ पर वे बैठे थे वहाँ से उसके हट जाने का समय आने पर भी वह वहीं बनी रही, हटी नहीं। रामचन्द्र, उस समय, कुछ थके से थे। अतएव सीता की गोद में सिर रख कर वे सो गये। उसी समय इन्द्र का पुत्र जयन्त, कौवे का रूप धर कर, वहाँ आया। उसने अपने नखों से सीताजी के वक्षःस्थल पर इतनी निर्दयता से प्रहार किया कि खून निकल आया।