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ग्यारहवाँ सर्ग।

बढ़ रही है। यह मेरे लिए लज्जा की बात है । यह मैं नहीं सहन कर सकता । मेरे अस्त्र का हाल तुझे मालूम है या नहीं ?प्राणियों की तो बातही नहीं, पर्वतों तक को काट गिराने की उसमें शक्ति है। ऐसा अमोघ अस्त्र धारण करनेवाला मैं, इस संसार में, दो को ही अपना शत्रु समझता हूँ; और, उन दोनों के अपराध की मात्रा भी, मेरी दृष्टि में, बराबर है। एक तो पिता की होम-धेनु का बछड़ा हर ले जाने के कारण हैहयवंशी कार्तवीर्य मेरा शत्रु है; और, दूसरा, मेरी कीत्ति का लोप करने की चेष्टा करने के कारण तू है। यद्यपि अपने प्रबल पराक्रम से मैं क्षत्रियों का नाश कर चुका हूँ तथापि जब तक मैं तुझे नहीं जीत लेता तब तक मुझे चैन नहीं- तब तक क्षत्रियवंश का विध्वंसकर्ता अपना अद्भुत पराक्रम भी मुझे अच्छा नहीं लगता । आग की तारीफ़ तो तब है जब वह फूस की ढेरी की तरह महासागर में भी दहकने लगे। महादेव का धनुष तोड़ने से यदि तुझ में कुछ घमण्ड आ गया हो तो यह तेरी नादानी है। भगवान्वि ष्णु की महिमा से वह कमजोर हो गया था-उनके तेज ने उसका सार खींच लिया था। यदि ऐसा न होता तो मजाल थी जो तू उसे तोड़ सकता। नदी के वेगगामी जल की टक्करों से जड़ें खुल जाने पर तट के तरुवर को हवा का हलका सा भी झोंका गिरा देता है। यह तू जानता है या नहीं ?

"अच्छा , तो, अब, तू मेरे इस धनुष पर प्रत्यञ्चा चढ़ा कर उस पर बाण रख और फिर शर-सन्धान कर । युद्ध रहने दे। यदि तू यह काम कर लेगा तो मैं समझ लूंगा कि तुझमें भी उतनाही बल है जितना कि मुझ में है। यही नहीं, किन्तु मैं यह भी मान लूंगा कि मैं तुझ से हार गया। परन्तु यदि मेरे परशु की चमचमाती हुई धार से घबरा कर तू डर गया हो तो मुझ से अभय-दान माँगने के लिए हाथ जोड़-वे हाथ जिनकी उँगलियों को प्रत्यञ्चा की रगड़ से तुने व्यर्थ ही कठोर कर डाला है। पराक्रम दिखाने का मौका आने पर जो लोग डर जाते हैं वे निशाना मारने का अभ्यास करते समय, धनुष की डोरी से अपनी उँगलियों को व्यर्थ ही कष्ट देते हैं।"

उस समय परशुराम की क्रोधभरी मूत्ति यद्यपि बड़ी ही भयानक हो रही थी तथापि रामचन्द्र के हृदय में भय का ज़रा भी सञ्चार न हुआ।