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ग्यारहवाँ सर्ग।

रामचन्द्र ने अपने बाण का निशाना बनाया; औरों पर प्रहार करने की उन्होंने आवश्यकता न समझी। बड़े बड़े विषधर सों पर परा- क्रम प्रकट करनेवाला गरुड़ क्या कभी छोटे छोटे सपेलों या पनिहाँ-साँपों पर भी आक्रमण करता है ? कभी नहीं। उन्हें वह अपनी बराबरी का समझता ही नहीं। शस्त्रास्त्रविद्या में रामचन्द्र बड़े ही निपुण थे। उन्होंने महा-वेग.गामी पवनास्त्र को धन्वा पर चढ़ा कर इस ज़ोर से छोड़ा कि ताड़का का मारीच नामक पर्चताकार पुत्र, पीले पत्त की तरह, धड़ाम से ज़मीन पर गिर गया। यह देख कर सुबाहु नामक दूसरे राक्षस ने बड़ा मायाजाल फैलाया। आकाश में वह कभी इधर कभी उधर दौडता फिरा । परन्तु बाण- विद्या-विशारद रामचन्द्र ने उसका पीछा न छोड़ा। छुरे के समान पैने बाणों से उसके शरीर की बोटी बोटी काट कर उसे उन्होंने, आश्रम के बाहर, मांसभोजी पक्षियों को बाँट दिया।

यज्ञसम्बन्धी विन को राम-लक्ष्मण ने, इस तरह, शीघ्र ही दूर कर दिया। उनका युद्ध-कौशल और पराक्रम देख कर ऋत्विजों ने उनकी बड़ी बड़ाई की और मौन धारण किये हुए कुलपति विश्वामित्र का यज्ञ-कार्य उन्होंने विधिपूर्वक निबटाया।

यज्ञ के अन्त में अवभृथ नामक स्नान करके विश्वामित्र ने यज्ञ-क्रिया से छुट्टी पाई। उस समय राम-लक्ष्मण ने उन्हें झुक कर सादर प्रणाम किया। प्रणाम करते समय हिलते हुए केशकलापवाले उन दोनों भाइयों को महामुनि ने आशीर्वाद दिया और उनकी पीठ पर बहुत देर तक अपना हाथ फेरा-वह हाथ जिसकी हथेली कुश तोड़ते समय कई दफे चिर चुकी थी और जिस पर इस घटना के निशान अब तक बने हुए थे।

इसी समय राजा जनक ने, यज्ञ करने के इरादे से, उसको सारी सामग्री एकत्र करके, विश्वामित्र को भी उत्सव में आने के लिए निमन्त्रण भेजा । यह. हाल राम-लक्ष्मण को मालूम हुआ तो, जनक के धनुष के विषय में अनेक आश्चर्य-जनक बातें सुन कर, उनके हृदय में भी वहाँ जाने की उत्कण्ठा उत्पन्न हुई। अतएव जितेन्द्रिय विश्वामित्र ने उन्हें भी अपने साथ लेकर मिथिलापुरी के लिए प्रस्थान कर दिया । चलते चलते,सायङ्काल,वे तीनों एक आश्रम के रमणीय वृक्षों के नीचे वह रात बिताई।