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रघुवंश ।

खचित भूमि पर ही चलने वाले थे, तथापि, इन विद्याओं की बदौलत, मुनि के साथ मार्ग चलना उन्हें ऐसा मालूम हुआ जैसे वे अपनी माताओं के पास आनन्द से खेल रहे हों। दशरथ से विश्वा- मित्र की मित्रता थी। वे उनके पुत्रों का भी बड़ा प्यार करते थे । वे चाहते थे कि राम-लक्ष्मण को राह चलने में कष्ट न हो । इस कारण वे तरह तरह की कथाये और पुरानी बाते राजकुमारों को सुनाने लगे । कुमारों को ये आख्यान इतने अच्छे मालुम हुए कि उन्हें अपने तन मन तक की सुध न रही । फल यह हुआ कि यद्यपि वे कभी बिना सवारी के न चले थे, तथापि उन्होंने यह भी न जाना कि हम पैदल चल रहे हैं । मुनि के कहे हुए आख्यानों ने ही सवारी का काम दिया । राजकुमार उन्हीं पर सवार से हुए, मुनि के पीछे पीछे दौड़ते चले गये । जीवधारियों ने ही नहीं; निर्जीवों तक ने, मार्ग में, रामलक्ष्मण की सेवा करके अपना जन्म सफल समझा:-तालाबों ने अपने मीठे जल से, पक्षियों ने अपने कर्णमधुर कलरव से, पवन ने सुगन्धित फूलों के पराग से और बादलों ने अपनी छाया से उनकी सेवा-शुश्रूषा की।

तपस्वियों को राम-लक्ष्मण के दर्शनों की अभिलाषा बहुत दिनों से थी। अतएव उन्हें देख कर मुनियों को महानन्द हुआ । खिले हुए कमलों से परिपूर्ण जलाशयों और थकावट दूर करने वाले छायावान् वृक्षों के दर्शन से उन्हें जो आनन्द नहीं हुआ वह आनन्द राम-लक्ष्मण के दर्शन से हुआ। उन्हें देख कर वे कृतार्थ हो गये।

धनुष लिये हुए रामचन्द्र गङ्गा और सरयू के सङ्गम के पास पहुँच गये। शङ्कर के द्वारा जला कर भस्म किये गये काम का, किसी समय, यहीं पर आश्रम था। शरीर की सुन्दरता में राम भी काम ही के समान थे; पर कर्म उनका उसके सदृश न था। रूप में तो वे काम के प्रतिनिधि अवश्य थे, परन्तु कार्य में नहीं । काम के कर्म से राम का कर्म जुदा था। सुकेतु की बेटी ताड़का ने काम के इस तपोवन को बिलकुल ही उजाड़ दिया था। उसके मारे न कोई इधर से आने जाने ही पाता था और न कोई तपस्वी यहाँ रहने ही पाता था । राम-लक्ष्मण के वहाँ पहुँचने पर विश्वामित्र ने उनसे ताड़का के शाप की सारी कथा कह सुनाई। तब उन दोनों ने अपने अपने धनुषों की नोके ज़मीन पर रख कर, बिना प्रयास