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आठवाँ सर्ग।

दशाह के बाद के सारे कृत्यों का सम्पादन, राजोचित रीति पर, बहुत ही अच्छी तरह किया। अपनी प्रियतमा रानी के परलोकगमन -सम्बन्धी कृत्य समाप्त करके, प्रातःकाल के क्षीणप्रभ चन्द्रमा के समान, उदासीन और कान्तिरहित अज ने, विना इन्दुमती के, अकेले ही,अपने नगर में प्रवेश किया । उसे इस दशा में आते देख पुरवासिनी स्त्रियों की आँखों से आँसुओं को झड़ी लग गई । अज ने उनके आँसुओं को आँसू न समझा । उसे ऐसा मालूम हुआ जैसे अश्रुधारा के बहाने स्त्रियों के मुखों पर उनके शोक का प्रवाह सा बह रहा हो । उसे देखते देखते, किसी तरह, वह अपने महलों में पहुँचा।

जिस समय यह दुर्घटना हुई—जिस समय अज पर यह विपत्ति पड़ी-महामुनि वशिष्ठ, अपने आश्रम में, यज्ञ की दीक्षा ले चुके थे । इस कारण, अज को सान्त्वना देने के लिए वे उसकी राजधानी में न आ सके। परन्तु, योग-बल से उन्हें अज का सारा हाल मालूम हो गया। ध्यानस्थ होते ही उन्होंने जान लिया कि अज, इस समय, अपनी रानी के शोक में आकण्ठ, मग्न हो रहा है। वह अपने होश में नहीं। अतएव उन्होंने, अज को समझाने के लिए, अपना एक शिष्य भेजा । उसने आकर अज से कहा:-

"महर्षि वशिष्ठ को आपके दुःख का कारण मालुम हो गया है। उन्हें यह अच्छी तरह विदित हो गया है कि आप, इस समय, प्रकृतिस्थ नहीं । परन्तु वे यज्ञ की दीक्षा ले चुके हैं । इससे अपने सदुपदेश द्वारा आपका दुःख दूर करने के लिए वे स्वयं नहीं आ सके । यज्ञ का प्रारम्भ न कर दिया होता तो वे स्वयं आते और आपके स्वभाव में जो विकार उत्पन्न हो गया है उसे अवश्य ही दूर कर देते । मेरे द्वारा उन्होंने कुछ सँदेशा भेजा है। उस संक्षिप्त सन्देश को अपने हृदय में धारण करके मैं आपके पास उपस्थित हुआ हूँ। आप तो बड़े ही सदाचारशील और विवेकपूर्ण पुरुष हैं। धैर्य भी आप में बहुत है। आपके ये गुण सभी को विदित हैं। अतएव जो कुछ मैं आप से निवेदन करने जाता हूँ उसे सावधान होकर सुन लीजिए। यही नहीं, किन्तु उसे अपने हृदय में सादर स्थान देकर, उसके अनुसार बर्ताव भी कीजिए । सुनिए:-

"पुराण-पुरुष भगवान त्रिविक्रम के तीनों पदों,अर्थात् स्वर्ग, मर्त्य और