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सातवाँ सर्ग।


से गये। धनुष की डोरी खींचने में वे सर्वथा असमर्थ हो गये। लोहे की जाली के टोप सिरों से खिसक कर, एक तरफ, उन लोगों के कन्धों पर आ रहे। सारे रथारोही सैनिक, अपने अपने शरीर ध्वजाओं के वाँसों से टेक कर, मूर्तियों के समान अचल रह गये। उँगली तक किसी से उठाई न गई। शत्रुओं की ऐसी दुर्दशा देख वीर-शिरोमणि अज ने अपने अोठों पर रख कर बड़े ज़ोर से शङ्ख बजाया। उस समय ऐसा मालूम हुआ जैसे, शङ्ख को मुँह से लगाने के बहाने, वह अपने वाहुबल से प्राप्त किये गये मूर्तिमान यश को ही पी रहा हो।

अज के विजय-सूचक शङ्खनाद को उसके योद्धा पहचान गये। उसे सुनते ही उन्हें मालूम हो गया कि अज की जीत हुई। पहले तो वे तितर बितर होकर भाग रहे थे; पर शङ्खध्वनि सुन कर वे लौट पड़े। लौट कर उन्होंने देखा कि उनके सारे शत्रु निद्रा में मग्न हैं। अकेला अज ही उनके बीच, चैतन्य अवस्था में, फिर रहा है। रात के समय कमलों के बन्द हो जाने पर चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब जिस तरह उनके बीच में झिलमिलाता हुआ देख पड़ता है, चेष्टारहित शत्रुओं के समूह में अज को भी उन्होंने उसी तरह चलता फिरता देखा।

वैरियों को अच्छी तरह परास्त हुआ देख, अज ने युद्ध के मैदान से लौटना चाहा। परन्तु युद्ध-स्थल छोड़ने के पहले, रुधिर लगे हुए अपने बाणों की नोकों से उसने उन राजाओं के पताकों पर यह लिख दिया:-- "याद रक्खा, अज तुम्हारे साथ निर्दयता का व्यवहार नहीं करना चाहता। दयार्द्र होकर उसने तुम्हारे प्राण नहीं लिये। केवल तुम्हारा यश ही लेकर उसने सन्तोष किया। यश खोकर और प्राण लेकर अब तुम खुशी से अपने अपने घर जा सकते हो।"

यह करके वह संग्राम-भूमि से लौट पड़ा और भयभीत हुई प्रियतमा इन्दुमती के पास आया। उस समय उस के शरीर की शोभा देखने ही योग्य थी। उसके धनुष का एक सिरा तो ज़मीन पर रक्खा था। दूसरे, अर्थात् ऊपर वाले, सिरे पर उसका दाहना हाथ था। लोहे के टोप को सिर से उतार कर उसने बायें हाथ में ले लिया था। इससे उसका सिर खुला हुआ था।