यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१०५
सातवाँ सर्ग।


को देखने की लालसा उनमें, उस समय,इतनी बलवती हो रही थी कि फिर भी वे अपनी चेष्टा से विरत न होते थे। अतएव लज्जा और लालसा के झूले में झूलने वाली उनकी आँखों की तत्कालीन मनोहरता देखने ही योग्य थी। कन्यादान हो चुकने पर वे दोनों, वधू-वर, प्रज्वलित अग्नि की प्रदक्षिणा करने लगे। उस समय-सुमेरु-पर्वत के आस पास फिरते हुए, अतएव एक दूसरे में मिल से गये दिन-रात की तरह-वे मालुम होने लगे। प्रदक्षिणा हो चुकने पर, राजा भोज के विधाता-तुल्य पुरोहित ने इन्दुमती को हवन करने की आज्ञा दी। तब बड़े बड़े नितम्बों वाली इन्दुमती ने धान की खीलें अग्नि में, लजाते हुए, डाली। उस समय हवन का धुवाँ लगने से उसकी आँखें लाल हो गई। इससे वे मतवाले चकोर पक्षी की आँखों की तरह मालुम होने लगी। खीलें, शमी वृक्ष की समिधा और घी आदि पदार्थों की आहुतियाँ हवन-कुण्ड में पड़ते ही अग्नि से उठे हुए पवित्र धुएँ की शिखा इन्दुमती के कपोलों पर छा गई। अतएव, ज़रा देर के लिए, वह इन्दुमती के कानों पर रक्खी हुई नीलकमल की कली की समानता को पहुँच गई-ऐसा मालूम होने लगा कि इन्दुमती के कानों के आस पास धुआँ नहीं छाया, किन्तु नीले कमल का गहना उसने कानों में धारण किया है। वैवाहिक हवन का धुआँ लगने से वधू के मुख-कमल की शोभा कुछ और ही हो गई। उसकी आँखें आकुल हो उठी-उनसे काजल मिले हुए काले काले आँसू टपकने लगे; कानों में यवांकुर के गहने जो वह पहने हुए थी वे कुम्हला गये, और उसके कपोल लाल हो गये। इसके अनन्तर सोने के सिंहासन पर बैठे हुए वर और बधू के सिर पर (रोचनारंजित) गीले अक्षत डाले गये। पहले स्नातक गृहस्थों ने अक्षत डाले, फिर बन्धु- बान्धवों सहित राजा ने, फिर पति-पुत्रवती पुरवासिनी स्त्रियों ने।

इस प्रकार भोजवंश के कुलदीपक उस परम सौभाग्यशाली राजा ने, अपनी बहन का विधिपूर्वक विवाह संस्कार कर के, स्वयंवर में आये हुए अन्य राजाओं का भी अच्छी तरह, अलग अलग, आदर-सत्कार करने के लिए अपने कर्मचारियों और अधिकारियों को आज्ञा दी। उन लोगों ने सारे राजाओं की यथेष्ट सेवा-शुश्रूषा की; उनके आदरातिथ्य में ज़रा भी कसर न पड़ने दी। परन्तु विदर्भ-नरेश के आतिथ्य से वे लोग सन्तुष्ट न