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छठा सर्ग।

ही वे तितर बितर हो जाते हैं; उनका आवरण दूर हो जाता है। इससे चन्द्रमा, आकाश में, अपनी सोलहों कलाओं से परिपूर्ण हुआ दिखाई देता है और सारे संसार की आनन्द-वृद्धि का कारण होता है। तथापि ऐसा भी सर्वकलासम्पन्न चन्द्रबिम्ब जिस तरह सूर्य-विकासिनी कमलिनी को पसन्द नहीं आता, उसी तरह, यह राजा,अत्यन्त रूपवान् और सारी कलाओं में पारङ्गत होने पर भी, इन्दुमती को पसन्द न आया।

तब वह द्वारपालिका शूरसेन (मथुरा-प्रान्त ) के राजा सुषेण के समीप इन्दुमती को ले गई । इस राजा का आचरण बहुत ही शुद्ध था। वह अपनी माता और अपने पिता, दोनों, के कुलों का दीपक था-उसके निष्कलङ्क व्यवहार के कारण दोनों कुल एक से उजियाले थे। उसकी कीर्ति इसी लोक में नहीं, किन्तु स्वर्ग और पाताल तक में गाई जाती थी। ऐसे अलौकिक राजा सुषेण की तरफ़ उँगली उठा कर इन्दुमती से सुनन्दा इस तरह कहने लगीः-

"यह राजा नीप नाम के वंश में उत्पन्न हुआ है। इसने न मालूम आज तक कितने यज्ञ कर डाले हैं। विद्या, विनय, क्षमा, क्ररता आदि गुणों ने इसका आसरा पाकर अपना परस्पर का स्वाभाविक विरोध इस तरह छोड़ दिया है जिस तरह कि सह और हाथी, व्याघ्र और गाय आदि प्राणी, किसी सिद्ध पुरुष के शान्त और रमणीय आश्रम के पास आकर,अपना स्वाभाविक वैरभाव छोड़ देते हैं। चन्द्रमा की किरणों के समान आँखों को आनन्द देने वाली इसकी कीति तो इसके निज के महलों में चारों तरफ फैली हुई देख पड़ती है; और इसका असह्य तेज इसके शत्रुओं के नगरों के भीतर उन ऊँचे ऊँचे मकानों में, जिनकी छतों पर घास उग रही है,चमकता हुआ देख पड़ता है । आत्मीय जनों को तो इससे सर्वोत्तम सुख मिलता है,और,शत्रुओं को प्रचण्ड पीड़ा पहुँचती है । यह इसके पराक्रम ही का परिणाम है जो इसके शत्रुओं के नगर उजड़ गये हैं और उनके ऊँचे ऊँचे मकानों के आँगनों तथा अटारियों में घास खड़ो है। इसकी राजधानी यमुना के तट पर है। इससे इसकी रानियाँ बहुधा उसमें जल-विहार किया करती हैं। उस समय उनके शरीर पर लगा हुआ सफ़ेद चन्दन धुल कर यमुना-जल में मिल जाता है । तब एक विचित्र दृश्य देखने