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रघुवंश।

के धन को उसने और सब धनों से बढ़ कर समझा। चक्रवर्ती राजा होने पर भी रघु का अभ्यागत के आदरातिथ्य की क्रिया अच्छी तरह मालूम थी । अपने इस क्रिया-ज्ञान का यथेष्ट उपयोग करके रघु ने कौत्स को प्रसन्न किया । जब वह स्वस्थ होकर आसन पर बैठ गया तब रघु ने हाथ जोड़ कर,बहुत ही नम्रता-पूर्वक, उससे कुशल-समाचार पूछना आरम्भ किया। वह बोला:-

"हे कुशाग्रबुद्धे ! कहिए, आप के गुरुवर तो अच्छे हैं ? मैं उन्हें सर्वदर्शी महात्मा समझता हूँ। जिन ऋषियों ने वेद-मन्त्रों की रचना की है उनमें उनका आसन सब से ऊँचा है। मन्त्र-कर्ताओं में वे सबसे श्रेष्ठ हैं । जिस तरह सूर्य से प्रकाश प्राप्त होने पर, यह सारा जगत्, प्रातःकाल, सोते से जग उठता है, ठीक उसी तरह, आप अपने पूजनीय गुरु से समस्त ज्ञान-राशि प्राप्त करके और अपने अज्ञानजन्य अन्धकार को दूर करके जाग से उठे हैं। एक तो आपकी बुद्धि स्वभाव ही से कुश की नोक के समान तीव्र; फिर महर्षि वरतन्तु से अशेष ज्ञान की प्राप्ति । क्या कहना है !

"हाँ, महाराज, यह तो कहिए-आपके विद्यागुरु वरतन्तुजी की तपस्या का क्या हाल है ? उनके तपश्चर्य के बाधक कोई विन्न ता उपस्थित नहीं; विघ्रों के कारण तपश्चर्या को कुछ हानि तो नहीं पहुँचती। महर्षि बड़ा ही घोर तप कर रहे हैं । उनका तप एक प्रकार का नहीं,तीन प्रकार का है। कृच्छ चान्द्रायणादि व्रतों से शरीर के द्वारा,तथा वेद-पाठ और गायत्री आदि मन्त्रों के जप से वाणी और मन के द्वारा, वे अपनी तपश्चर्या की निरन्तर वृद्धि किया करते हैं । उनका यह कायिक, वाचिक और मानसिक तप सुरेन्द्र के धैर्य को भी चञ्चल कर रहा है। वह डर रहा है कि कहीं ये मेरा आसन न छीन लें। इसीसे महर्षि के तपश्चरण-सम्बन्ध में मुझे बड़ी फ़िक्र रहती है। मैं नहीं चाहता कि उसमें किसी तरह का विघ्न पड़े;क्योंकि मैं ऐसे महात्माओं को अपने राज्य का भूषण समझता हूँ।

"आपके आश्रम के पेड़-पौधे तो हरे भरे हैं ? सूखे तो नहीं ? आँधी और तूफ़ान आदि से उन्हें हानि तो नहीं पहुँची ? आश्रम के इन पेड़ों से बहुत आराम मिलता है । आश्रमवासी तो इनकी छाया से आराम पाते ही हैं,अपनी शीतल छाया से ये पथिकों के श्रम का भी परिहार करते हैं।