यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६०
रघुवंश।

आने पर उन्होंने देखा कि जिन देवदारु-वृक्षों से रघु के हाथो बाँधे गये थे । उनकी छाल,हाथियों के कण्ठों की रस्सियों और जञ्जीरों की रगड़ से,कट गई है। उस कटी और रगड़ी हुई छाल को देख कर उन्होंने रघु के हाथियों की उँचाई का अन्दाजा लगाया।

हिमालय पर्वत पर उत्सव-सङ्कत नामक पहाड़ी राजाओं के साथ रघु का बड़ा ही भयङ्कर युद्ध हुआ । रघु की सेना के द्वारा छोड़े गये विषम बाण,और उन राजाओं की सेना के द्वारा गोफन में रख कर फे के गये पत्थर,परस्पर इतने ज़ोर से टकराये कि उनसे भाग निकलने लगी। रघु ने अपने भीषण बाणों की वर्षा से उन राजाओं के युद्ध-सम्बन्धी सारे उत्साह का नाश कर दिया। उनके गर्व को चूर्ण कर के रघु ने अपने भुजबल की बदौलत प्राप्त हुए जयरूपी यश के गीत किन्नरों तक से गवा कर छोड़े। किन्नरों तक ने उसे शाबाशी दी- उन्होंने भी उसका यशोगान कर के उसे प्रसन्न किया । फिर, उन परास्त हुए पहाड़ी राजाओं का क्या कहना । उन्होंने तो अपरिमित धन-सम्पत्ति देकर रघु को प्रसन्न किया। अनमोल रत्नों से अपनी अपनी अँजुलियाँ भर भर कर वे रघु के सामने उपस्थित हुए। उनकी उन भेटों को देखने पर राजा रघु को मालूम हुआ कि हिमालय कितना सम्पत्तिशाली है। साथ ही, हिमालय को भी मालूम हो गया कि रघु कितना पराक्रमी है। रघु के पहले कोई भी अन्य राजा हिमालय के इन पहाड़ी राजाओं का पराभव न कर सका था। इसीसे किसी को इस बात का पता न था कि इनके पास इतनी सम्पत्ति होगी।

वहाँ पर अपनी अखण्ड कीर्ति स्थापित करके,रावण के द्वारा एक दफ़े स्थानभ्रष्ट किये गये कैलास-पर्वत को लज्जित सा करता हुआ,राजा रघु हिमालय-पर्वत से नीचे उतर पड़ा। उसने और आगे जाने की आवश्यकता ही न समझी । एक दफे परास्त किये गये शत्रु के साथ शूर पुरुष फिर युद्ध नहीं करते;और,कैलास का पराभव रावण के हाथ से पहले ही हो चुका था । अतएव,उस पर फिर चढ़ाई करना रघु ने मुनासिब न समझा। यही सोच कर वह हिमालय के ऊपर से ही लौट पड़ा; आगे नहीं बढ़ा।

वहाँ से राजा रघु ने पूर्व-दिशा की ओर प्रस्थान किया और लौहित्या