"व्याह को छः महीने हुए। इस से तो मालूम होता है कि व्याह के समय किस्नू की सास गर्भवती थी।"
"हाँ"
"यह बात उन्होंने नहीं बताई—छिपा गये।"
"बड़ी दगा की ससुर ने। हमने देन-लेन में भी कुछ नहीं किया। हम यह सोच कर चुप रहे कि सब अपना ही तो है। बड़ा धोखा खाया।"
"अब किस्नू को बुला लो। अब गुजर नहीं होगा। भाग में यही बदा था न लड़की ढंग की मिली न और कुछ मिला।"
"मैं खुद जाऊँगा। जरा उनसे दो-दो बातें तो कर आऊँ।"
रामशरण दो चार दिन बाद समधियाने पहुँचे। समधी से आप बोले—"आपने लड़के को किसी काम में नहीं लगाया।"
समधी ने उत्तर दिया—"किस काम में लगाऊँ, समझ में नहीं आता। अब तो बिलकुल ठीक है, यहाँ तो कोई ऐसी बात नहीं की जिससे हमें कुछ शिकायत होती। आप इसे ले जाइये—वहीं अपनी दुकान पर बिठाइये। वह काम इसका समझा हुआ है। किसी दूसरे काम का अनुभव इसे नहीं है और बिना अनुभव के काम नहीं कर सकता।"
रामशरण चुप हो गए। कोई उत्तर ही समझ में नहीं आया।
कृष्ण शरण ने उनसे अकेले में कहा—"अब यहाँ मेरा रहना उचित नहीं है। जब से लड़का हुआ है तबसे मेरे साथ इनका व्ययहार भो रूखा हो गया।"
"सो तो हो ही जायगा। जो मुझे यह पता होता कि बच्चा होने वाला है तो कदापि विवाह न करता और करता तो पहले काफी रकम धरा लेता। हम तो धोखे में ही मारे गये।"
पण्डित रामशरण लड़के को लेकर लौटे। चलते समय उनको क्रोध शान्त करने का उन्हें कोई अवसर नहीं मिला था। उन्हें और कुछ तो सूझा नहीं। दांत किटाकिटा कर बोले—तुमने समझा होगा कि जन्मपत्र मिलाया है, परन्तु वह जन्मपत्र असली नहीं था।"