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एक सप्ताह पश्चात लड़की वाले पुनः आए। पण्डित जी ने पूछा---"कुण्डली मिल गई?"

"हाँ बहुत अच्छी मिल गई है।"

"हाँ मैंने भी मिलवा ली---ठीक मिलती है।"

इसके पश्चात विवाह पक्का हुआ। लेन-देन का प्रश्न आने पर पण्डित जी बोले---"मैं ठहरा कर विवाह करने के विरुद्ध हूँ। आप हमारी और पनी हैसियत देखकर काम करें, चार आदमी हँसे नहीं, बस इतना चाहता हूं।"

"सो तो ईश्वर चाहे कदापि न होगा। इससे आप निश्चित रहें। मेरे भी चार नाते-रिश्तेदार हैं। मुझे उनका भी तो ख्याल है।"

"बेशक! होना ही चाहिए।"

विवाह पक्का हो गया। पण्डित जी ने प्राप्त रीति से यह पता भी लगवा लिया कि लड़की वाले की पाँच-छः सौ रुपये मासिक की रियासत है और उनके केवल एक लड़की ही है।

विवाह की तिथि निश्चित हो गई। समय समय पर सब रस्में भी पूरी हुई। परन्तु रस्मों में जो देन-लेन किया गया वह विशेष उत्साहप्रद नहीं था। पत्नी ने इस बात की शिकायत पण्डित जी से की तो वह बोले---"सब ठीक है, बोलो नहीं। छाती पर नहीं धर ले जायँगे अन्त की तो सब हमारा ही होगा। न दें इस समय---कंजूस स्वभाव वाले ऐसे ही होते हैं--परन्तु अन्त को तो देना ही पड़ेगा।"

यह सुन कर पत्नी को भी सन्तोष हो गया।

निश्चित तिथि पर विवाह हुआ। विवाह में भी लेन-देन साधारण ही रहा। पण्डित जी ने उस समय भी यही सोचकर सन्तोष किया---"आखिर ले कहाँ जायेंगे---मिलेगा सब हमी को। न इस समय सही कुछ दिन बाद सही। लड़के को ससुराल में ही बसा दूंँगा---जाते कहाँ हैं बच्चा! सारी कंजूसी भुला दूंँगा।"

विवाह होकर जब लड़की घर आई तो पत्नी को बड़ी निराशा