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वह स्वयं होटल जाते थे और कभी ये लोग रायबहादुर के घर आया करते थे। रायबहादुर साहब इनको बड़ी खातिर करते थे। फूलों के गुलदस्तों, फल, मिठाई तथा शृङ्गार सामग्री से इन लोगों को प्रसन्न करने का प्रयत्न कर रहे थे। ये लोग भी रायबहादुर को बहुत मानने लगे।

रायबहादुर साहब की कार इनके लिए हर समय उपस्थित रहती थी। रायबहादुर साहब स्वयं भी इन्हें घुमाने फिराने ले जाया करते थे।

एक दिन सर्कस की छुट्टी थी। रायबहादुर ईसाबेला को कार पर लेकर घूमने चलें। उस दिन ईसाबेला अकेली थी। रायबहादुर साहब भी अकेले ही थे और स्वयं ही कार को 'ड्राइव' कर रहे थे।

ईसाबेला अगली सीट पर रायबहादुर साहब के बगल में बैठी हुई थी।

नगर के बाहर छावनी की ओर जाकर रायबहादुर ने एक निर्जन स्थान पर कार रोक दी। अन्धकार हो गया था।

ईसाबेला ने पूछा---"क्या बात है।"

रायबहादुर साहब ने कहा---"कुछ नहीं! जरा देर यहाँ रुककर चलेंगे।"

कुछ क्षण मौन रहकर रायबहादुर ने कहा---"तुम सर्कस की नौकरी क्यों करती हो ईसाबेला?"

"मुझे शौक है।"

"बड़ा खतरनाक काम करती हो। जरा चूकने से प्राण जा सकते हैं।"

"यही तो आनन्द है।"

"यह आनन्द का विषय नहीं, भय का है।"

"मुझे तो तनिक भी भय नहीं लगता।"

ईसाबेला ने हँस कर कहा।

"जब तक तुम खेल करती रहती हो मेरी छाती धड़कती रहती है।"

"वह कुछ नहीं! मुझे उसी में आनन्द आता है।"