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"जी मैं कम्बल लेकर आया हूँ! यह न समझियेगा कि आपके पास तूश है। वह मोल में भारी हैं तो यह तोल में भारी!"

सब लोग हँसने लगे रायबहादुर साहब बोले--"यह बराबरी अच्छी दिखाई। भारी दोनों हैं---एक मोल में तो दूसरा तोल में?"

"कहने को चाहे जो कहिए---तूश और मलीदा और अलवान--- परन्तु जो आनन्द कम्बल और रजाई में आता है वह किसी में नहीं है।"

रायबहादुर बोले---"तूश वगैरह हल्के होते हैं और साथ ही काफी गम भी इसलिए इनका मूल्य है। रजाई और कम्बल ओढ़े चलना- फिरना कठिन होता है।"

"हाँ बस इतनी ही सुविधा है। रात को तूश ओढ़ कर सोइये तो पता लग जाय! रात में तो लिहाफ और कम्बल ही काम देते हैं।"

"गधे हो! तूश इत्यादि का उपयोग रात में ओढ़कर सोने में नहीं होता।" रायबहादुर ने कहा।

"क्या-क्या गप लोग हाँक देते हैं। एक साहब उस दिन कह रहे थे कि पहले ऐसे तूश होते थे कि यदि जमे हुए घी के कुप्पे पर लपेट दीजिए तो घी पिघल जाता था।"

"हाँ तो क्या हुआ! ऐसे तूश बनते रहे होंगे।"

"ऐसा कोई कपड़ा बन ही नहीं सकता। तूश में गर्मी कहाँ से आई?"

"तूश में गर्मी नहीं होती तो शरीर को गर्म क्यों रखता है।"

"शरीर को तो आप के अन्दर निरन्तर उत्पन्न होती हुई गर्मी गर्म रखती हैं। ऊन केवल इतना करता है कि आपके शरीर की गर्मी को संचित रखता है बाहर की ठंडी हवा उसे नहीं घसीट पाती, क्योंकि ऊन गर्मी का वाहक न होकर रोधक होता है।"

"यह बात तो हमारी कुछ समझ में नहीं आती---हम तो यह जानते हैं कि ऊन गर्म होता है।"

"उसका यही तात्पर्य है। जितने पदार्थ गर्मी के अवरोधक होते हैं