स्वयं पी! जब थोड़ी शेष रह गई तो मोहन को देकर कहा---"ले पी जा।"
मोहन ठण्डाई देखकर बोला---"हूँ! हमारे लिए इत्ती ही।"
"बहुत तो हैं!" गंगापुत्र बोला।
दद्दू बोल उठे---"अभी से ज्यादा भांग मत पिया करो।"
"अरे दद्दू यह साला बड़ा नसेवाज होता जा रहा है।"
"तुम्हीं बनाये दे रहे हो---इसका क्या दोष।"
"हम तो दद्दू इस मारे दे देते हैं कि आत्मा नहीं मानती। हम कोई चीज खायँ---पियें और यह खड़ा मुँह ताके---यह बात आत्मा स्वीकार नहीं करती।"
"नशे की चीज के सम्बन्ध में ऐसा नहीं करना चाहिए।"
"सो दद्दू हम न भी दें तब भी यह साला पियेगा तो जरूर ही। और भांग पीने में हर्ज भी नहीं है। हम भी बचपन से ही पीने लगे थे। भांग से तो हम लोग बच ही नहीं सकते।"
"यह बात दूसरी है!"
"हाँ दद्दू! अपना तो यही शौक है। दोनों समय भाँग छानना। गंगा माता की शरण में पड़े रहना और आप लोगों की जय जयकार मनाना। यही हमारा रोजगार समझो, काम समझो। हमारे बाप-दादा भी यही करते आये और आगे हमारे लड़के भी यही करेंगे। इस मारे भाँग को तो हम रोकते नहीं। हाँ और नशे के हम शत्रु हैं। चरस, अफीम, शराब इनसे दूर रहते हैं। इसके वास्ते भी इन्हीं चीजों की रोक-टोक है। भांँग की रोक-टोक हम लोग नहीं करते।"
"तब ठीक है।"
यह कह कर दद्दू स्नान करने चले गये।
( २ )
संध्या समय दद्दू पुनः गंगा-तट पहुँचे। देखा कि गङ्गापुत्र भाँग