"हर्ज नहीं है समझ कर ही मैं खा लेता हूँ।"
"इसमें कोई हर्ज की बात नहीं है। मिठाई तो हम भी खा लेते हैं।"
इस प्रकार यह बात समाप्त हुई।
एक दिन बाजार की छुट्टी के दिन मिश्रजी सन्ध्या-समय गंगाजी पहुँचे। जैसे ही यह घाट पर पहुँचे तो इन्होंने देखा कि बबुआ दो अन्य युवकों के साथ एक तख्त पर बैठा खोन्चे वाले के दही-बड़े खा रहा है। यह देखकर मिश्रजी को गश आने लगा। एक तख्त पर थसक कर बैठ गये और दोनों हाथों से मुँह ढांप लिया।
उधर बबुआ ने जो पिता को देखा तो चट-पट खोन्चे वाले के पैसे देकर साथियों सहित खिसक गया। कुछ देर बाद जब मिश्रजी ने सिर उठाकर उधर देखा तो वहां कोई नहीं था। मिश्रजी ने आंखें मलकर पुनः गौर से देखा, परन्तु वहां कोई होता तो दिखाई देता।
रात में जब घर पर दोनों का सङ्गम हुआ तो मिश्रजी ने कहा--"काहे सरऊ ! आज गंगा जी पर बैठे दही-बड़े खा रहे थे।"
बबुआ बोला--"नहीं तो।"
"साले अभी जूता लेता हूँ, इतने जूते मारूँगा कि चांद पिलपिली हो जायगी। ऊपर से झूठ बोलता है।"
"अरे चाचा आज मैं गंगा जी गया ही नहीं।"
"ओफ ओह ! हद है ! मुझे झूठा बना रहा है। जब कि मैंने खुद अपनी आँखों से देखा।"
"किसी और को देखा होगा। उसकी शकल मुझसे मिलती होगी।
"अबे ससुरे, कपड़े तो तेरे ही जैसे थे।"
"सो तो आजकल सब काँग्रेसी खद्दर का कुर्ता-टोपी पहनते हैं।"
"और तुम्हारे साथ वह श्याम सुन्दर, रामसिंह और देवकी थे--सो--?"
"उनको बुलाकर पूछो। उनकी बाबत मैं कुछ नहीं जानता।"
"अच्छी बात है वह कह देंगे तब तो मानोगे?"
"हां मान लेंगे।'