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हवा

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पं० जगनन्दन प्रसाद मिश्र बड़े कट्टर ब्राह्मण थे। छुआछूत और बीघा-विस्वा के पूर्ण अवतार। एक कपड़े के व्यापारी के यहाँ मुनीमी करते थे। लोग इनका कट्टरपन देखकर इन्हें खूब बनाया करते थे; परन्तु मिश्रजी या तो इतने बूदम थे कि लोगों का बनाना समझ नहीं पाते थे अथवा उन्हें अपने बनाये जाने में स्वयं आनन्द मिलता था। जो भी हो मिश्र जी थे बिलकुल गोल आदमी! जिस समय वह अपने भवन के द्वार पर बैठकर "हमरे मुरादाबाद मां" का व्याख्यान करते उस समय जान पड़ता था कि मुरादाबाद इस पुरुष-रत्न की पितृ-भूमि बनकर धन्य हो गया है। यद्यपि मिश्रजी अपने वार्तालाप में "दिजियौ,किजियौ" की पुट देकर अपनी भाषा को पूर्ण मुरादाबादी भाषा बनाने का प्रयत्न करते थे; परन्तु फिर भी मुरादाबाद-भाषा-विशारदों के कथनानुसार उनकी भाषा मुरादाबादी नहीं थी। कुछ जानकार लोगों का कहना था कि मिश्रजी मुरादाबादी हैं ही नहीं। मिश्र होते तो मुरादाबादी भी होते, जब मिश्र ही नहीं हैं तब इन्हें मुरादाबाद का क्या पता। तब कौन थे? लोग कहते थे कि यह हैं त्रिपाठी ! शहर में आकर मिश्र बन गये और मुरादाबाद से नाता जोड़ लिया। शहर में यह सब खप जाता है। परदेशी आदमी यहां आकर चाहे जो बन जाय !

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