यह पृष्ठ प्रमाणित है।
-२८-
 

"फरियाद मेरे पास! कामतासिंह के पास जाओ—वही तुम लोगों का न्याओ करते हैं। हम काहे में हैं।"

"आप क्यों नहीं हैं सरकार, जमींदार तो आप ही हैं।"

"हाँ, खाली पसा लेने भरके, बाकी हुकुम तो यहाँ कामतासिंह का ही चलता है। झूठ कहते हैं?"

"नहीं सरकार, कहते तो आप सच्ची ही हैं। गाँव की यह दशा न होती तो कामतासिंह की मजाल थी कि हमारे गाँव पर टेढ़ी निगाह डाल सके। पर गाँव तो बिगड़ा ही हुआ है सरकार कामतासिंह का बोलबाला है। पर अब तो हद होगई।"

"क्या हुआ?"

"अब इज्जत पाबरू पर भी नौबत आगई सरकार! हम जात के अहीर जरूर हैं; पर इज्जत आबरू तो हमारी भी है सरकार।"

"हाँ क्यों नहीं! इज्जत-आबरू तो सब की है चाहे जिस जात का हो" ध्यानसिंह ने उत्सुकता पूर्वक कहा।

"और कोई चाहे सह ले पर हम तो नहीं सहेंगे।"

"सहना भी न चाहिए। यह तो मैं सदा कहता आया हूँ, पर मेरी बात ही कोई नहीं सुनता। परन्तु बात क्या हुई, पहिले यह तो बताओ।"

"कामतासिंह ने हमारी आबरू ले ली सरकार।"

ध्यानसिंह लेटे हुए थे, उठकर बैठ गये और बोले–"क्या बात हुई है।"

"कल साँझ को हमारी जवान बहिन को, जब कि वह बाहर (शौच को) गई हुई थी कामतासिंह के आदमी उठा ले गये रात भर उसे रक्खा, सबेरे फिर यहीं छोड़ गये।"

"आँय!" ध्यानसिंह ने नेत्र विस्फारित करके कहा।

"हाँ मालिक! हम तो किसी काम के नहीं रहे सरकार।"

यह कहते कहते रामचरण रो पड़ा।

"यह तो बड़ा गजब किया हराम जादे ने।"