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"ठीक नहीं कह सकती।"

"मैं कह सकता हूँ तुम्हारे लिए यह कार्य बड़ा सरल है।"

मि० सिनहा की बात सुनकर सुनन्दा विचार में पड़ गई।

( ३ )

महाराज आ गये। जिस कोठी में महाराज ठहरे थे वह कोठी मि० वर्मा की ही थी--और उनकी अपने रहने की कोठी से मिली हुई थी। कोठी के चारों ओर हथियार बन्द पुलिस का पहरा था।

सुनन्दा अपने पिता के साथ महाराज से मिली। महाराज उससे वार्तालाप करके बड़े प्रसन्न हुए।

बातचीत के प्रसंग में वर्मा जी ने महाराज से पूछा--"अपनी स्पीच तो श्रीमान् छपवाकर लाये होंगे।

"हाँ ! छपवा कर लाया हूँ।"

सुनन्दा बोली--“मैंने सुना है महाराज बड़ी सुन्दर अंग्रेजी बोलते हैं। स्पीच बड़ी अच्छी होगी।"

"महाराज हंस पड़े। उन्होंने पूछा--'क्या तुमने पहले कभी मेरी स्पीच नहीं पढ़ी?”

"नहीं श्रीमान्, मुझे अभी तक ऐसा सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ।"

"अच्छा ! पढ़ोगी?"

"निस्सन्देह अभी मिल जाय तो रात में विस्तर पर लेटकर पढ़ने में आनन्द आता है।"

महाराज हँस पड़े। उन्होंने कहा--"अच्छा ! अभी देता हूँ।"

यह कहकर महाराज ने स्पीच की प्रतियों का बण्डल निकलवाया और उसमें से एक प्रति निकाल कर सुनन्दा को दी।"

वर्मा जी बोल उठे--"किसी दूसरे के हाथ में न पड़ने पाए ! जब तक स्पीच उद्घाटन के अवसर पर पढ़ न दी जाय तब तक किसी दूसरे के हाथ में न पड़नी चाहिए।"

सुनन्दा--"मैं इसका पूरा ध्यान रखूँगी।"

"पढ़के मुझे लौटा देना।" वर्मा जी ने कहा।