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"महाराज उद्घाटन समारोह पर व्याख्यान भी देंगे। ऐसा सुना है।"

"व्याख्यान तो अवश्य देंगे।"

"यह भी सुना है कि वह अपनी स्पीच छपवाकर ला रहे हैं।"

"शायद, मुझे ठीक मालूम नहीं।"

"उनकी स्पीच की एक छपी प्रति मिल जाती तो बड़ा अच्छा था।"

"सो तो सबको बांटी जायगी।"

"वह तो समारोह के दिन बांटी जायगी। मैं एक दिन पहले चाहता हूँ।"

"अच्छा। क्यों "

"एक बेबकूफी कर बैठा हूँ।"

"वह क्या?"

"एक मित्र से शर्त बद ली है कि मैं महाराज की स्पीच एक दिन पहले प्राप्त कर लूँगा।"

"ऐसी शर्त क्यों बदी"

"बात ही बात में ऐसा हो गया।"

"पूरी हो जायगी?"

"यह तो मैं स्वयं पूछने वाला था।"

"मुझसे !"

"हाँ !"

"मुझे स्पीच से क्या मतलब?"

"परन्तु मुझे तो है और तुम्हें मुझसे है और तुम्हारे यहाँ ही महाराज ठहरेंगे।"

यह कहकर मि० सिनहा ने सुनन्दा के कन्धे पर हाथ रख दिया। सुनन्दा मुस्कराकर बोली--"यह बात है।"

"तुम चाहोगी तो मिल जायगी।"

"देखो, प्रयत्न करूंगी।"

"प्रयत्न करोगी तो अवश्य मिल जायगी।"