ही रहती थी। एक दिन उनके एक काश्तकार ने आकर शिकायत की- "ठाकुर हमारे खेत की मेंड के पास एक शीशम का पेड़ है उसे बलभद्र- सिंह कटा रहे हैं।"
"क्यों ?' ठाकुर ने पूछा।
"जबरदस्ती और क्यों। जगह-जमीन आपकी है-वह कटानेवाले कौन हैं !"
"ठीक बात हैं । क्या अभी कटा रहे हैं।"
"हाँ उनके आदमी कुल्हाड़ी लेकर आगये हैं।"
यह सुनकर ठाकुर विश्वनाथसिंह अपने कुछ आदमियों को लेकर चले। शीशम के पेड़ के पास पहुंचने पर उन्होंने देखा कि पेड़ पर कुल्हाड़ी चल रही है-पास ही जमींदार हनुमान सिंह खड़े हैं। यह देख कर विश्वनाथ बोले-"बस खबरदार ! अब कुल्हाड़ी न चले, नहीं अच्छा न होगा!"
"क्यों न चले कुल्हाड़ी ?" हनुमानसिंह ने पूछा।
"पेड़ हमारी जगह में है।"
"कुछ घास तो नहीं खा गये हो । यह तुम्हारी जगह है ? तुम्हारी जगह वहाँ खतम हो जाती है।"
इस पर कहा-सुनी होने लगी। हनुमानसिंह बोले-'तो खैर आप की जगह सही--आपको जो करना हो सो कर लीजिए । हम तो पेड़ कटवायँगे।"
विश्वनाथसिंह बोले-पेड़ कटवाना दिल्लगी नहीं है-लहासें गिर जायगी।"
"अरे जाओ ठाकुर ! बहुत बलफो नहीं, नहीं तो ये गिलहरी की पूंछ जैसी मूँछें उखड़वा ली जायगी । मेरा नाम है हनुमानसिंह !"
इतना सुनते ही विश्वनाथसिंह आग हो गया, अपने आदमियों से बोले-'मारो सालों को।"
उनके साथ के आदमियों में से एक प्रमुख व्यक्ति बोला-"ठाकुर पहले यह निश्चय कर लेनो कि जगह तुम्हारी है । ऐसे फौजदारी करने