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मूँछ

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ठाकुर विश्वनाथ सिंह उन लोगों में से थे जिनकी यह धारणा थी कि पुराने रीति-रिवाज आचार-विचार सब उत्तम और निर्दोष हैं और अाधुनिक सभ्यता यदि पूर्णाश में नहीं तो अधिकांश दोषपूर्ण है। जिन बातों के वह बहुत ही भक्त थे उनमें कदाचित मूँछ ही प्रमुख थी। पुरुषों के लिए मूँछ को वह उतना ही आवश्यक समझते थे जितना कि बैल के लिए सींग।

उनकी अपनी मूँछे घनी, लम्बी तथा नोकीली थीं वह। मूँछों का लालन-पालन भी बड़ी तत्परता के साथ किया करते थे। मूँछों में तेल लगाना, कङ्घा करना उनका नित्य-कर्म था। जब फुर्सत के समय अकेले बैठते थे तो मूँछों पर हाथ फेरा करते थे और उन्हें मोड़ा करते थे। उनकी मूंँछ-भक्ति देख कर गाँव के वे लोग जिनसे उनका हँसी-दिल्लगी का रिश्ता था, उन्हें छेड़ा करते थे। कोई उनकी मूँछ को बुलबुल का अड्डा कहता था, कोई कुत्तो की पूछ से तुलना करता था। परन्तु इन बातों का ठाकुर विश्वनाथ सिंह पर कोई प्रभाव न पड़ता था। उनका खयाल था कि लोग ईर्षावश ऐसा कहते हैं।

विश्वनाथ सिंह जमींदार थे। जिस गांव में वह रहते थे उसी गांँव के चार आने के वह जमींदार---शेष बारह आने में अन्य कई जमींदार

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