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पण्डित जी हँसे! अनोखेलाल ने पूछा--

"आप हँसे क्यों?

"हँसा यह कि स्वयंसेवक और वेतन-भोगी!"

"तो क्या हुआ?"

"ये दोनों तो विरुद्ध बातें हैं। स्वयंसेवक के अर्थ होते हैं---स्वेच्छापूर्वक सेवा करने वाला। अतः जो स्वेच्छापूर्वक सेवा करेगा वह वेतन कभी नहीं लेगा।"

"तो खायगा क्या?

"जीविका के लिए अन्य कोई कार्य करे।"

"जब वह अन्य कार्य करेगा तब सेवा क्या खाक करेगा?"

"कुछ भी हो स्वयंसेवक तो उसी को कहते हैं। वेतनभोगी तो नौकर होगया स्वयंसेवक नहीं रहा।"

"हम सेवा समिति के नौकर हैं, परन्तु जनता की सेवा तो मुफ्त करते हैं---यही हमारी स्वयं-सेवा है।"

"हाँ---आँ करते होंगे, परन्तु हम तो इसे स्वयं सेवा मान नहीं सकते।"

"आप न मानें, परन्तु जनता तो मानती है।"

"हाँ भइया! शहर का मामला है, वहाँ नये नये कायदे कानून बनते हैं।"

"यह तो बड़ा पुराना कायदा है।"

पण्डित जी मुस्कराने लगे। बोले---"पुराना हो या नया---हम तो एक बात जानते हैं कि स्वयंसेवक उसे कहते हैं जो अपनी इच्छा से बिना किसी पुरस्कार अथवा वेतन के लालच के, सेवा करे!"

"ऐसा तो वही कर सकता है जिसके घर में खाने को हो।"

"जिसके घर में खाने को होगा, वह अन्य प्रकार से सेवा करेगा---स्वयं सेवक नहीं बनेगा---यदि बनेगा तो कुछ समय, कभी दे देगा---हर समय हाजिरी नहीं बजा सकता।"

पण्डित जी मुस्कराकर चुप हो गये।