"वह मैं निश्चिय ही करूँगा।" अभी काफी समय है।
"हाँ दस दिन हैं।"
तो यदि मुझे आज से ही इस कार्य के लिए मुक्त कर दिया जाय तो अधिक अच्छा रहेगा।"
"हाँ! हाँ! आज से आप मुक्त हैं और जितना रुपया उचित समझें ले लें।"
"अच्छी बात है। मैं आज रात को ही प्रस्थान करूँगा। रात में कोई ट्रेन जाती है?"
"हाँ, जाती है।"
"तो बस उसी से प्रस्थान करूँगा।'
( २ )
मि॰ सिनहा एक होटल में ठहरे हुए थे। रात को ८ बजे के लगभग मि॰ सिनहा सूटेड-बूटेड होकर निकले। बाहर आकर उन्होंने एक ताँगा लिया और सीधे कला भवन की प्रबन्ध समिति के अध्यक्ष के यहाँ पहुँचे।
यह महाशय एक क्षत्रिय थे। सुशिक्षित कला—पारखी, धनाढ्य! मि॰ सिनहा को उन्होंने बड़ी आवभगत से लिया। कुछ देर बैठने के पश्चात् वर्मा जी बोले—"तो आप उद्घाटन समारोह देखने आये हैं।"
"जी! महाराज तो कदाचित एक दिन पूर्व आ जायेंगे।"
"जी हाँ, महाराज शनिश्चर की शाम को भा जायँगे—इतवार को उद्घाटन है।"
"देखने योग्य समारोह होगा।"
"जी हाँ! हम लोग प्रयत्न तो ऐसा ही कर रहे हैं।"
"उस अवसर पर महाराज का भाषण भी होगा।"
"जी हाँ! अवश्य होगा।"
"महाराज बोलते तो अच्छा हैं।"
"हाँ! अधिकतर उनकी स्पीच पहले से तैयार कर ली जाती है। ऐसा सुना है।"