पृष्ठ:रक्षा बंधन.djvu/१७०

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बालिका—नहीं, खाली पैसे लूँगी।

तुझे दोनों लेने पड़ेंगे—यह कह कर युवक ने बलपूर्वक पैसे तथा रुपये बालिका के हाथ पर रख दिए।

इतने में घर के भीतर से किसी ने पुकारा—अरी सरसुती (सरस्वती) कहाँ गई?

बालिका ने—आई-कहकर युवक की ओर कृतज्ञतापूर्ण दृष्टि डाली और चली गई।

गोलागञ्ज (लखनऊ) की एक बड़ी तथा सुन्दर अट्टालिका के एक सुसज्जित कमरे में एक युवक चिंता-सागर में निमग्न बैठा है! कभी वह ठण्डी साँसें भरता है, कभी रूमाल से आँखें पोंछता है, कभी आप-ही-आप कहता है—हा! सारा परिश्रम व्यर्थ गया। सारी चेष्टाएँ निष्फल हुईं। क्या करूं। कहाँ जाऊं उन्हें कहाँ ढूंढू। सारा उन्नाव छान डाला; परन्तु फिर भी पता न लगा।—युवक आगे कुछ और कहने को था कि कमरे का द्वार धीरे-धीरे खुला और एक नौकर अन्दर आया।

युवक ने कुछ विरक्त होकर पूछा—क्यों, क्या है?

नौकर—सरकार अमरनाथ बाबू आये हैं।

युवक—(सम्भलकर) अच्छा यहीं भेज दो।

नौकर के चले जाने पर युवक ने रूमाल से आँखें पोंछ डाली और मुख पर गम्भीरता लाने की चेष्टा करने लगा।

द्वार फिर खुला और एक युवक अन्दर आया।

युवक—आओ भाई अमरनाथ!

अमरनाथ—कहो घनश्याम, आज अकेले कैसे बैठे हो? कानपुर से कब लौटे?

घनश्याम—कल आया था।

अमरनाथ—उन्नाव भी अवश्य ही उतरे होंगे?

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